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कायाकल्प]
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फिर सकते थे! उन्हें आशा थी कि रानी जी मुझे जरूर सरफराज फरमायेंगी; लेकिन जब एक हफ्ता गुजर गया और अहल्या ने उन्हें सरफराज न किया, तो एक दिन तामजान पर बैठकर स्वयं आये और लाठी टेकते हुए द्वार पर खड़े हो गये। उनकी खबर पाते ही अहल्या निकल आयी और बड़ी नम्रता से बोली—ख्वाजा साहब, मिजाज तो अच्छे हैं? मैं खुद ही हाजिर होनेवाली थी, आपने नाहक तकलीफ की।

ख्वाजा—खुदा का शुक्र है। जिन्दा हूँ। हुजूर तो खैरियत से रहीं?

अहल्या—आपकी दुआ है; मगर आप मुझसे यों बातें कर रहे हैं, गोया मैं कुछ और हो गयी हूँ। मैं आपकी पाली हुई वही लड़की हूँ, जो आज से १५ साल पहले थी, और आपको उसी निगाह से देखती हूँ।

ख्वाजा साहब अहल्या की नम्रता और शील पर मुग्ध हो गये। वल्लाह! क्या इन्कसार है, कितनी खाकसारी है! इसी को शराफत कहते हैं कि इन्सान अपने को भूल न जाय। बोले—बेटी, तुम्हें खुदा ने यह दरजा अता किया; मगर तुम्हारा मिजाल वही है, वरना किसे अपने दिन याद रहते है! प्रभुता पाते ही लोगों की निगाहें बदल जाती हैं, किसी को पहचानते तक नहीं, जमीन पर पाँव तक नहीं रखते। कसम खुदा की, मैंने जिस वक्त तुम्हें नाली में रोते पाया था, उसी वक्त समझ गया था कि यह किसी बड़े घर का चिराग है। मैं यशोदानन्दन मरहूम से भी बराबर यह बात कहता रहा। इतनी हिम्मत, इतनी दिलेरी, अपनी असमत के लिए जान पर खेल जाने का यह जोश, राजकुमारियों ही में हो सकता है। खुदा आपको हमेशा खुश रखे। आपको देखकर आँखें मसरूर हो गयीं। आपकी अम्माजान तो अच्छी तरह हैं? क्या करूँ, पड़ोस में रहता हूँ; मगर बरसों आने की नौबत नहीं आती। उनकी-सी पाकीजा-सिफत खातून दुनिया में कम होंगी।

अहल्या—आप उन्हें समझाते नहीं, क्यों इतना कष्ट झेलती हैं?

ख्वाजा—अरे बेटा, एक बार नहीं, हजार बार समझा चुका; मगर जब वह खुदा की बन्दी माने भी। कितना कहा कि मेरे पास जो कुछ है, वह तुम्हारा है! यशोदा नन्दन मरहूम से मेरा बिरादराना रिश्ता था। सच पूछो, तो मैं उन्हीं का बनाया हुआ हूँ। मेरी जायदाद में तुम्हारा भी हिस्सा है, लेकिन मेरी बातों का मुतलक लिहाज न किया। यह तवक्कुल खुदा की देन है। आपको इस मकान में तकलीफ होती होगी। मेरा बँगला खाली है; अगर कोई हरज न समझो, तो उसी में कयाम करो।

वास्तव में अहल्या को उस घर में बड़ी तकलीफ होती थी। रात में नींद ही न आती। आदमी अपनी आदतों को एकाएक नहीं बदल सकता। १५ साल से वह उस महल में रहने की आदी हो रही थी, जिसका सानी बनारस में न था। इन तंग, गन्दे एवं टूटे-फूटे अंधेरे मकान में, जहाँ रात-भर मच्छरों की शहनाई बजती रहती थी, उसे कब आराम मिल सकता था? उसे चारों तरफ से बदबू आती हुई मालूम होती थी। सास लेना मुश्किल था; पर ख्वाजा साहब के निमन्त्रण को वह स्वीकार न कर सकी,