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कायाकल्प]
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वागीश्वरी ने परोपकार के नाम से चिढ़कर कहा—तू जो कर रही है, यह परोपकार नहीं, यश-लालसा है। अपने पुरुष और पुत्र का उपकार तो तू कर न सकी, संसार का उपकार करने चली है!

अहल्या—तुम तो अम्माँजी, आपे से बाहर हो जाती हो।

वागीश्वरी—अगर तू धन के पीछे अन्धी न हो जाती, तो तुझे यह दण्ड न भोगना पड़ता। तेरा चित्त कुछ कुछ ठिकाने पर आ रहा था, तब तक तुझे यह नयी सनक सवार हो गयी। परोपकार तो तब समझती, जब तू वहीं बैठे-बैठे गुप्त रूप से चन्दे मेजवा देती। मुझे शंका हो रही है कि इस वाह वाह से तेरा सिर न फिर जाय। धन का भूत तेरे पीछे बुरी तरह पड़ा हुआ है और अभी तेरा कुछ और अनिष्ट करेगा।

अहल्या ने नाक सिकोड़कर कहा—जो कुछ करना था, कर चुका; अब क्या करेगा? जिन्दगी ही कितनी रह गयी है, जिसके लिए रोऊँ?

दूसरे दिन प्रातःकाल डाकिया शङ्खधर का पत्र लेकर पहुँचा, जो जगदीशपुर और काशी से घूमता हुआ आया था। अहल्या पत्र पढ़ते ही उछल पड़ी और दौड़ी हुई वागीश्वरी के पास जाकर बोली—अम्मा, देखो, लल्लू का पत्र आ गया। दोनों जने एक ही जगह हैं। मुझे बुलाया है।

वागीश्वरी—ईश्वर को धन्यवाद दो बेटी। कहाँ है?

अहल्या—दक्षिण की ओर है, अम्माँजी! पता ठिकाना सब लिखा हुआ है।

वागीश्वरी—तो बस, अब तू चली ही जा। चल, मैं भी तेरे साथ चलूँगी।

अहल्या—आज पूरे पाँच साल के बाद खबर मिली है, अम्माँजी! मुझे आगरे आना फल गया। यह तुम्हारे आशीर्वाद का फल है, अम्माँजी।

वागीश्वरी—मैं तो उस लड़के के जीवन को बखानती हूँ कि बाप का पता लगाकर दी छोड़ा।

अहल्या—इस आनन्द में आज उत्सव मनाना चाहिए, अम्माँजी।

वागीश्वरी—उत्सव पीछे मनाना, पहले वहाँ चलने की तैयारी करो। कहीं और चले गये, तो हाथ मलकर रह जाओगी।

लेकिन सारा दिन गुजर गया और अहल्या ने यात्रा की कोई तैयारी न की। वह अब यात्रा के लिए उत्सुक न मालूम होती थी। आनन्द का पहला आवेश समाप्त होते ही वह इस दुविधे में पड़ गयी थी कि वहाँ जाऊँ या न जाऊँ? वहाँ जाना केवल दस-पाँच दिन या महीने के लिए जाना न था; वरन् राजपाट से हाथ धो लेना और शंखधर के भविष्य को बलिदान करना था। वह जानती थी कि पितृभक्त शंखधर पिता को छोड़कर किसी भाँति न आयेगा और मैं भी प्रेम के बन्धन में फँस जाऊँगी। उसने यही निश्चय किया कि शंखधर को किसी हीले से बुला लेना चाहिए। उनका मन कहता था कि शङ्खधर आ गया, तो स्वामी के दर्शन भी उसे अवश्य होंगे। शङ्खधर ने पत्र में लिखा था कि पिताजी को मुझसे अपार स्नेह है। क्या यह पुत्र प्रेम उन्हें खींच न