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कायाकल्प]
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वह एक क्षण तक खड़ी रही। फिर आगे बढ़ी।

शङ्खधर दीवानखाने में बैठे हुए सोच रहे थे। मेरे बार-बार जन्म लेने का हेतु क्या है? क्या मेरे जीवन का उद्देश्य जवान होकर मर जाना ही है? क्या मेरे जीवन की अभिलाषाएँ कभी पूरी न होंगी? संसार के और सब प्राणियों के लिए यदि भोग-विलास वर्जित नहीं है, तो मेरे ही लिए क्यों है? क्या परीक्षा की आग में जलते ही रहना मेरे जीवन का ध्येय है?

देवप्रिया द्वार पर आकर खड़ी हो गयी।

शंखधर ने उसका अलंकार-विहीन रूप देखा, तो उन्मत्त हो गये। अलकारों का त्याग करके वह मोहिनी हो गयी थी।

देवप्रिया ने द्वार पर खड़े-खड़े कहा—अन्दर आऊँ?

शंखधर के अन्तःकरण में कहीं से आवाज आयी। मुँह से कोई शब्द न निकला।

देवप्रिया ने फिर कहा—अन्दर आऊँ?

शङ्खधर ने कातर स्वर में कहा—नेकी और पूछ-पूछ!

देवप्रिया—नहीं प्रियतम, तुम्हारे पास आते डर लगता है।

शङ्खधर ने एक पग आगे बढ़कर देवप्रिया का हाथ पकड़ा और अन्दर खींच लिया। उसी वक्त वायु का वेग प्रचण्ड हो गया। बिजली का दीपक बुझ गया। कमरे में अन्धकार छा गया।

देवप्रिया ने सहमी हुई आवाज में कहा—मुझे छोड़ दो!

उसका हृदय धक-धक कर रहा था।

सितार पर चोट पड़ते ही जैसे उसके तार गूँज उठते हैं, वैसे ही शङ्खधर का स्नायुमण्डल थरथरा उठा। रमणी को कर-पाश में लपेट लेने की प्रबल इच्छा हुई। मन को सँभालकर कहा—घर आयी हुई लक्ष्मी को कौन छोड़ता है!

देवप्रिया—बिना बुलाया मेहमान बिना कहे जा भी तो सकता है।

शङ्खघर की विचित्र दशा थी। भीतर भय था, बाहर इच्छा। मन पीछे हटता था, पैर आगे बढ़ते थे। उसने बिजली का बटन दबाकर कहा—लक्ष्मी बिना बुलाये नहीं आती प्रिये! कभी नहीं। उपासक का हृदय अव्यक्त रूप से नित्य उसकी कामना करता ही रहता है। वह मुँह से कुछ न कहे, पर उसके रोम-रोम से आह्वान के शब्द निकलते रहते हैं।

देवप्रिया की चिर-क्षुधित प्रेमाकांक्षा आतुर हो उठी। अनन्त वियोग से तड़पता हुआ हृदय आलिंगन के लिए चीत्कार करने लगा। उसने अपना सिर शङ्खधर के वक्ष स्थल पर रख दिया और दोनों बाँहें उसके गले में डाल दीं। कितना कोमल, कितना मधुर, कितना अनुरक्त स्पर्श था। शंखधर प्रेमोल्लास से विभोर हो गया। उसे जान पड़ा कि पृथ्वी नीचे काँप रही है और आकाश ऊपर उड़ा जाता है। फिर ऐसा हुआ कि वज्र बड़े वेग से उसके सिर पर गिरा।