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कायाकल्प
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हाथ पति के चरणो की ओर बढ़ाये; पर वह चरणों को स्पर्श न कर सकी, हाथ फैले रह गये, और एक क्षण मे भूमि पर लटक गये। चक्रधर ने घबराकर उसके मुख की ओर देखा । निराशा मुरझाकर रह गयी थी। नेत्रों में करुण याचना भरी हुई थी।

चक्रधर ने रुंधे हुए स्वर मे कहा-अहल्या, मैं आ गया, अव कहीं न जाऊँगा । ईश्वर से कहता हूँ, कहीं न जाऊँगा । हाय ईश्वर ! क्या तू मुझे यही दिखाने के लिए यहॉ लाया था?

अहल्या ने एक बार तृषित दीन एवं तिरस्कारमय नेत्रों से पति की ओर देखा। आंखें सदैव के लिए बन्द हो गयीं।

उसी वक्त मनोरमा आकर द्वार पर खड़ी हो गयी । चक्रधर ने ऑसुत्रों को रोकते हुए कहा-रानीजी, जरा आकर इन्हें चारपाई से उतरवा दीजिए।

मनोरमा ने अन्दर आकर अहल्या का मुख देखा और रोकर बोली---आपके दर्शन बदे थे, नहीं तो प्राण तो कब के निकल चुके थे। दुखिया का कोई भी अरमान पूरा न हुआ।

यह कहते-कहते मनोरमा की ऑखो से ऑसुनो की झड़ी लग गयी।

उपसंहार

कई साल बीत गये हैं। मुंशी वज्रधर नहीं रहे । घोड़े की सवारी का उन्हें बड़ा शौक था। नर घोड़े ही पर सवार होते थे। बग्घी, मोटर, पालकी इन सभी को वह जनानी सवारी कहते थे। एक दिन जगदीशपुर से बहुत रात गये लौट रहे थे। रास्ते मे एक नाला पड़ता था । नाले में उतरने के लिए रास्ता भी बना हुया था; लेकिन मुशीजी नाले में उतरकर पार करना अपमान की बात समझते थे । घोड़े ने जस्त मारी, उस पार निकल भी गया, पर उसके पॉव गड्ढे में पड़ गये। गिर पड़ा, मुशीजी भी गिरे और फिर न उठे। हँस-खेलकर जीवन काट दिया, निर्मला भी पति का वियोग सहने के लिए बहुत दिन जीवित न रही । उसकी अन्तिम अभिलापा, कि चक्रधर फिर विवाह कर ले, पूरी न हो सकी।

देवप्रिया फिर जगदीशपुर पर राज्य कर रही है । हॉ, उसका नाम बदल गया हैं। विलासिनी देवप्रिया अब तपस्विनी देवप्रिया है। उसका भविष्य अब अन्धकार-मय नहीं है। प्रभात की आशामयी किरणे उसके जीवन मार्ग को आलोकित कर रही हैं।


५७


रानी मनोरमा नये भवन मे रहती है। उसने कितनी ही चिड़िया पाल रखी हैं । उन्ही की देख-रेख मे अब वह अपने दिन काटती है। पक्षियों के कलरव में वह अपनी मनोव्यथा को विलीन कर देना चाहती है। उसके शयनागार में सोने के चौखट में