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कायाकल्प]
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विशालसिंह ने पीछे की ओर सशंक-नेत्रों से देखकर कहा-बड़ा गजब हुआ। चुड़ैल सब सुन गयी होगी। मुझे जरा भी आहट न मिली।

वसुमती—उँह, रानी रूठेंगी, अपना सोहाग लेंगी। कोई कहाँ तक डरे। आदमियों को बुलाओ, यह सामान यहाँ से ले जाएँ।

भादों की अँधेरी रात थी। हाथ को हाथ न सूझता था। मालूम होता था, पृथ्वी पाताल में चली गयी है, या किसी विराट जन्तु ने उसे निगल लिया है। मोमबत्तियों का प्रकाश उस तिमिर-सागर में पाँव रखते काँपता था। विशालसिंह भोग के पदार्थ थालियों में भरवा-भरवाकर बाहर रखवाने में लगे हए थे। कोई केले छील रहा था, कोई खीरे काटता था, कोई दोनों में प्रसाद सजा रहा था। एकाएक रोहिणी एक चादर ओढ़े हुए घर से निकली और बाहर की ओर चली। विशालसिंह दहलीज के द्वार पर खड़े थे। इस भरी सभा में उसे यों निश्शंक भाव से निकलते देखकर उनका रक्त खौलने लगा। जरा भी न पूछा, कहाँ जाती हो, क्या बात है। मूर्ति की भाँति खड़े रहे। दिल ने कहा—जिसने इतनी बेहयाई की, उससे और क्या आशा की जा सकती है। वह जहाँ जाती हो, जाय; जो जी में आये, करे। जब उसने मेरा सिर ही नीचा कर दिया, तो मुझे उसकी क्या परवा। बेहया, निर्लज्ज तो है ही, कुछ पूछूँ और गालियाँ देने लगे, तो मुँह में और भी कालिख लग जाय। जब उसको मेरी परवा नहीं, तो मैं क्यों उसके पीछे दौड़ूँ। और लोग अपने-अपने काम में लगे हुए थे। रोहिणी पर किसी की निगाह न पड़ी।

इतने में चक्रधर उनसे कुछ पूछने आये, तो देखा कि महरी उनके सामने खड़ी है और क्रोध से आँखें लाल किये कह रहे हैं—अगर वह मेरी लौंडी नहीं है, तो मैं भी उसका गुलाम नहीं हूँ। अगर वह स्त्री होकर इतना आपे से बाहर हो सकती है, तो मैं पुरुष होकर उसके पैरों पर सिर न रखूँगा। जहाँ इच्छा हो जाय, मैंने तिलाञ्जलि दे दी। अब इस घर में कदम न रखने दूँगा। (चक्रधर को देखकर) आपने भी तो उसे देखा होगा?

चक्रधर—किसे? मैं तो केले छील रहा था। कौन गया है?

विशालसिंह—मेरी छोटी पत्नीजी रूठकर बाहर चली गयी हैं। आपसे घर का वास्ता है। आज औरतों में किसी बात पर तकरार हो गयी। अब तक तो मुँह फुलाये पड़ी रहीं, अब यह सनक सवार हुई। मेरा धर्म नहीं है कि मैं उसे मनाने जाऊँ! आप धक्के खायँगी। उसके सिर पर कुबुद्धि सवार है।

चक्रधर—किधर गयी हैं, महरी?

महरी—क्या जानूँ, बाबूजी? मैं तो बरतन माँज रही थी। सामने ही गयी होंगी।

चक्रधर ने लपककर एक लालटेन उठा ली और बाहर निकलकर दायें बायें निगाहें दौड़ाते, तेजी से कदम बढ़ाते हुए चले। कोई दो सौ कदम गये होंगे कि रोहिणी एक वृक्ष के नीचे खड़ी दिखलायी दी। ऐसा मालूम होता था कि वह छिपने के लिए कोई