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कायाकल्प]
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दया और क्षमा की देवी है | वह क्या जाने कि यही आग लगानेवाली है और बुझाने-वाली भी। इसका चरित्र समझने के लिए मनोविज्ञान के किसी बड़े पण्डित की जरू-रत है।

चक्रधर ने श्राकाश की ओर देखा, तो घटा घिर आई थीं । पानी बरसा ही चाहता था। उठकर बोले-आप इस विद्या में बहुत कुशल मालुम होते हैं ।

जब वह बाहर निकल गये, तो गुरुसेवक ने मनोरमा से पूछा-आज दोनो इन्हें क्या पढ़ा रहे थे ?

मनोरमा-कोई खास बात तो नहीं थी।

गुरुसेवक-यह महाशय भी बने हुए मालूम होते हैं । सरल जीवनवालों से बहुत घबराता हूँ। जिसे यह राग अलापते देखो, समझ जाओ कि या तो उसके लिए अंगूर खट्टे हैं, या वह स्वांग रचकर कोई बड़ा शिकार मारना चाहता है।

मनोरमा-बाबूजी उन यादमियों में नहीं हैं।

गुरुसेवक-तुम क्या जानों। ऐसे गुरुघण्टालों को मैं खूब पहचानता हूँ।

मनोरमा-नहीं भाई साहब, बाबूजी के विषय में आप धोखा खा रहे हैं । महा-राजा साहब इन्हें अपना प्राइवेट सेक्रेटरी बनाना चाहते हैं, लेकिन यह मंजूर नही करते ।

गुरुसेवक-सच ! उस जगह का वेतन तो ४-५ सौ से कम न होगा ।

मनोरमा--इससे क्या कम होगा। चाहें तो इन्हें अभी वह जगह मिल सकती है । राजा साहब इन्हें बहुत मानते हैं, लेकिन यह कहते हैं, मैं स्वाधीन रहना चाहता हूँ। यहाँ भी अपने घरवालो के बहुत दबाने से आते हैं।

गुरुसेवक-मुझे वह जगह मिल जाय, तो बड़ा मजा आये ।

मनोरमा--मैं तो समझती है, इसका दुगुना वेतन मिले, तो भी बाबूजी स्वीकार न करेंगे। सोचिए, कितना ऊँचा आदर्श है !

गुरुसेवक-मुझे किसी तरह वह जगह मिल-जातो, तो जिन्दगी बड़े चैन से कटती ।

मनोरमा-अब गाँवों का सुधार न कीजिएगा ?

गुरुसेवक-वह भी करता रहूँगा, यह भी करता रहूँगा। राजमन्त्री होकर प्रजा की सेवा करने का जितना अवसर मिल सकता है, उतना स्वाधीन रहकर नहीं। कोशिश करके देखू, इसमें तो कोई बुराई नहीं है।

यह कहते हुए वह कमरे में चले गये।

मेघों का दल उमडा चला पाता था । मनोरमा खिड़की के सामने खड़ी अाकाश को ओर भयातुर नेत्रों से देख रही थी। अभी वाबूजी घर न पहुँचे होंगे। पानी या गया तो जरूर भीग जायँगे । मुझे चाहिये था कि उन्हें रोक देती । भैया न आ जाते, तो शायद वह अभी खुद ही बैठते । ईश्वर करे, वह घर पहुंच गये हों।


३१

मुद्दत के बाद जगदीशपुर के भाग जगे । राजभवन आबाद हुआ। बरसात मे मकानो