पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९८
[कायाकल्प
 

की मरम्मत न हो सकती थी, इसलिए क्वार तक शहर ही में गुजर करना पड़ा। कार्तिक लगते ही एक ओर जगदीशपुर के राजभवन की मरम्मत होने लगी, दूसरी ओर गद्दी के उत्सव की तैयारियाँ शुरू हुईं। शहर से सामान लद लदकर जगदीशपुर जाने लगा। राजा साहब स्वयं एक बार रोज जगदीशपुर जाते, लेकिन रहते शहर में ही। रानियाँ जगदीशपुर चली गयी थीं और राजा साहब को अब उनसे चिढ़ सी हो गयी था। घण्टे दो घण्टे के लिए भी वहाँ जाते तो सारा समय गृह-कलह सुनने में कट जाता था और कोई काम देखने की मुद्दलत न मिलती थी। रानियों में पहले ही बम-चख मची रहती थी। राजा साहब ने जीवन का नया अध्याय शुरू कर दिया था।

राजा साहब ताकीद करते थे कि प्रजा पर जरा भी सख्ती न होने पाये। दीवान साहब से उन्होंने जोर देकर कह दिया था कि बिना पुरी मजदूरी दिये किसीसे काम न लीजिए, लेकिन यह उनकी शक्ति के बाहर था कि आठों पहर बैठे रहें। उनके पास अगर कोई शिकायत पहुँचती, तो कदाचित् वह राज-कर्मचारियों को फाड़ खाते लेकिन प्रजा सहनशील होती है, जब तक प्याला भर न जाय, वह जबान नहीं खोलती। फिर गद्दी के उत्सव में थोड़ा बहुत कष्ट होना स्वाभाविक समझकर और भी कोई न बोलता था। अपना काम तो बारहों मास करते ही हैं, मालिक की भी तो कुछ सेवा होनी चाहिए। यह खयाल करके सभी लोग उत्सव की तैयारियों में लगे हुए थे। सुन रखा था कि राजा साहब बड़े दयालु, प्रजा-वत्सल पुरुष हैं, इससे लोग खुशी से इस अवसर पर योग दे रहे थे। समझते थे, महीने दो महीने का झंझंट है, फिर तो चैन-ही-चैन है। रानी साहब के समय की सी धाँधली तो इनके समय में न होगी।

तीन महीने तक सारी रियासत के बढ़ई, मिस्त्री, दरजी, चमार, कहार सब दिल तोड़ कर काम करते रहे। चक्रधर को रोज खबरें मिलती रहती थीं कि प्रजा पर बड़े-बड़े अत्याचार हो रहे हैं, लेकिन वह राजा साहब से शिकायत करके उन्हें असमंजस में न डालना चाहते थे। अकसर खुद जाकर मजूरों और कारीगरों को समझाते थे। १५ ही मील का तो रास्ता था। रेलगाड़ी आध घण्टे में पहुँचा देती थी। इस तरह तीन महीने गुजर गये। राजभवन का कलेवर नया हो गया। सारे कस्बे में रोशनी के फाटक बन गये, तिलकोत्सव का विशाल पण्डाल तैयार हो गया। चारों तरफ भवन में, पण्डाल में, कस्बे में सफाई और सजावट नजर आती थी। कर्मचारियों को नई वरदियाँ बनवा दी गयीं। प्रान्त भर के रईसों के नाम निमन्त्रण पत्र भेज दिये गये और रसद का सामान जमा होने लगा। वसन्त की ऋतु थी, चारों तरफ बसन्ती रंग की बहार नजर आती थी। राजभवन बसन्ती रंग से पुताया गया था। पण्डाल भी बसन्ती था। मेहमानों के लिए जो कैंप बनाये गये थे, वे भी बसन्ती थे। कर्मचारियों की बरदियाँ भी बसन्ती। दो मील के घेरे में बसन्ती ही बसन्ती था। सूर्य के प्रकाश से सारा दृश्य कञ्चनमय हो जाता था। ऐसा मालूम होता था, मानो स्वयं ऋतु राज के अभिषेक की तैयारियाँ हो रही हैं।

लेकिन अब तक बहुत-कुछ काम बेगार से चल गया था। मजूरों को भोजन मात्र मिल