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कायाकल्प]
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जाता था, अब नकद रुपये की जरूरत सामने आ रही थी। राजायो का आदर सत्कार और अँगरेज हुक्काम की दावत तवाजा तो वेगार मे न हो सकती थी! कलकत्ते से थिएटर की कम्पनी बुलायी गयी थी, मथुरा की रासलीला-मण्डली को नेवता दिया गया था। खर्च का तखमीना पाँच लाख से ऊपर था। प्रश्न था, ये रुपए कहाँ से पाये। खजाने में झझी कौड़ी न थी! असामियो से छमाही लगान पहले ही वसूल किया जा चुका था। कोई कुछ कहता था, कोई कुछ। मुहूर्त आता जाता था और कुछ निश्चय न होता था। यहाँ तक कि केवल १५ दिन और रह गये।

सन्ध्या का समय था। राजा साहब उस्ताद मेहखाँ के साथ बैठे सितार का अभ्यास कर रहे थे। राज्य पाकर उन्होंने अब तक केवल यही एक व्यसन पाला था। वह कोई नयी बात करते हुए डरते रहते थे कि कहीं लोग कहने लगें कि ऐश्वर्य पाकर मतवाला हो गया, अपने को भूल गया। वह छोटे बड़े सभी से बड़ी नम्रता से बोलते थे और यथाशक्ति किसी टहलू पर भी न बिगड़ते थे। मेंडूखा इस वक्त उन्हे डॉट रहे थे-सितार बजाना कोई मुँह का नेवाला नहीं है कि दीवान साहब और मुशीजी आकर खड़े हो गये।

विशालसिंह ने पूछा—कोई जरूरी काम है?

ठाकुर—जरूरी काम न होता, तो हुजूर को इस वक्त क्या कष्ट देने आता?

मुंशी—दीवान साहब तो पाते हिचकते थे। मैंने कहा कि इन्तजाम की बात मे कैसी हिचक। चलकर साफ-साफ कहिए। तब डरते-डरते आये हैं।

ठाकुर—हुजूर, उत्सव को अब केवल एक सप्ताह रह गया है और अभी तक रुपए को कोई सबोल नहीं हो सकी। अगर आज्ञा हो, तो किसी बैंक से ५ लाख कर्ज ले लिया जाय।

राजा—हरगिज नहीं। आपको याद है तहसीलदार साहब, मैंने वापसे क्या कहा था? मैने उस वक्त तो कर्ज ही नहीं लिया, जन कौड़ी-कौडी का मुहताज था। कर्ज का तो आप जिक्र ही न करें।

मुंशी—हजूर, कर्ज और फर्ज के रूप में तो केवल जरा सा अन्तर है, पर अर्थ में जमीन और आसमान का फर्क है।

दीवान—तो अब महाराज क्या हुक्म देते हैं?

राजा—ये हीरे जवाहिरात ढेरो पड़े हुए हैं। क्यो न इन्हें निकाल डालिए? किसी जौहरी को बुलाकर उनके दाम लगवाइए।

दीवान—महाराज, इसमे तो रियासत की बदनामी है।

मुंशी—घर के जेवर ही तो आबरू हैं। वे घर से गये और आबरू गयी।

राजा—हाँ, बदनामी तो जरूर है, लेकिन दूसरे उपाय ही क्या है?

दीवान-मेरी तो राय है कि असामियों पर हल पीछे १०) चन्दा लगा दिया जाय।

राजा—मैं अपने तिलकोत्सव के लिए अमामियों पर जुल्न न करूंगा। इमसे तो कही अच्छा है कि उत्सव ही न हो।