पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/१०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१०४ पूंजीवादी. उत्पादन समझौते के द्वारा इन हस्तांतरित करने योग्य वस्तुओं पर निजी स्वामित्व रखने वालों के रूप में और पुनाचे स्वाधीन व्यक्तियों के रूप में एक दूसरे के साथ व्यवहार करें। लेकिन सामूहिक सम्पत्ति पर प्राधारित प्राविम समान में ऐसी पारस्परिक स्वाधीनता की स्थिति नहीं होती, चाहे वह समाज पितृसत्तात्मक परिवार के प में हो, चाहे प्राचीन हिन्दुस्तानी प्राम-समुदाय के म में, और चाहे वह पेक देश के ईका राज्य के रूप में हो। इसलिये मालों का विनिमय शुरु में ऐसे समाजों के सीमान्त प्रदेशों में ऐसे स्थानों पर प्रारम्भ होता है, वहाँ उन समाजों का उसी प्रकार के अन्य समाजों से, अपवा उनके सदस्यों से, सम्पर्क कायम होता है। परन्तु मम से उत्पन्न वस्तुएं जैसे ही किसी समाज के बाहरी सम्बंधों में माल बन जाती है, वैसे ही, इसकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप, उसके अन्दरूनी व्यवहार में भी उनका यही रूप हो जाता है। शुरू में उनका किन अनुपातों में विनिमय होता है, यह बात केवल संयोग पर निर्भर रहती है। उनका विनिमय इसलिये सम्भव होता है कि उनके मालिकों में उनको हस्तांतरित करने की इच्छा होती है। इस बीच दूसरों की उपयोगी वस्तुओं की बरत धीरे-धीरे चोर पकड़ती जाती है। लगातार बोहराये जाने के फलस्वरूप विनिमय एक साधारण सामाजिक कृत्य बन जाता है। इसलिये कुछ समय बाद यह बरी हो पाता है कि श्रम की पैदावार का कुछ हिस्सा सर बास विनिमय के उद्देश्य से तैयार किया जाये। बस उसी क्षण से उपयोग की दृष्टि से किसी भी वस्तु की उपभोग-उपयोगिता और विनिमय की दृष्टि से उसकी उपयोगिता का भेव साक तौर पर पक्का हो जाता है। उसका उपयोग-मूल्य उसके विनिमय-मूल्य से अलग हो जाता है। दूसरी ओर, यह बात कि वस्तुओं का विनिमय किन परिमाणात्मक अनुपातों में हो सकता है, अब उनके उत्पादन पर निर्भर करने लगती है। रिवाज वस्तुओं पर निश्चित परिमाणों के मूल्यों की छाप अंकित कर देता है। पैदावार के सीचे विनिमय में हरेक माल अपने मालिक के लिये प्रत्यक्ष ढंग से विनिमय का साधन होता है, और दूसरे तमाम व्यक्तियों के लिये वह सम मूल्य होता है, लेकिन केवल उसी हब तक, जिस हब तक कि उसमें इन व्यक्तियों के लिये उपयोग मूल्य होता है। इसलिये, इस अवस्था में विनिमय की जाने वाली वस्तुओं को खुब अपने उपयोग-मूल्य से स्वतंत्र, या विनिमय करने वालों की व्यक्तिगत पावश्यकतामों से स्वतंत्र, कोई मूल्य-म प्राप्त नहीं होता। जैसे-जैसे विनिमय-मालों की संख्या और विविधता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे किसी मूल्य-म्प की भावश्यकता भी बढ़ती जाती है। समस्या और उसको हल करने के साधन एक साथ पैदा होते है। मालों के मालिक अपने मालों का दूसरे लोगों के मालों के साथ समीकरण और विनिमय उस बात तक बड़े पैमाने पर नहीं करते हैं, जब तक कि अलग-अलग मालिकों के विभिन्न प्रकार के मालों का किसी एक खास माल के साथ विनिमय करना और मूल्यों के रूप में समीकरण करना सम्भव नहीं हो जाता। ऐसा कोई खास माल अन्य विभिन्न मालों का सम मूल्य बन जाने के फलस्वरूप तुल्त ही एक सामान्य सामाजिक सम-मूल्य का स्वरूप धारण कर लेता है, हालांकि उसका यह स्वम कुछ संकुचित सीमानों तक ही सीमित रहता है। जिन मनिक सामाजिक कृत्यों के कारण यह स्वम्म जन्म लेता है, वह उनके साथ ही प्रकट पर लोप होता पहता है। बारी- बारी से.और घोड़ी-थोड़ी देर के लिये यह म कभी इस माल में प्रकट होता है, तो कभी उस माल में। लेकिन विनिमय के विकास के साक्-साथ वह केवल कुछ बासग के मालों के साथ हो कसकर और मनन्य रूप से गुड़ पाता है, और मुद्रा-म पारण करने के फलस्वरम उसका रूतिकीकरण हो जाता है। पहले-पहल यह स्वम किस बास माल से पड़ता है, यह संयोग . . -