पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/११२

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विनिमय १०९ . . उसके सापेक्ष मूल्य को इस प्रकार परिमाणात्मक ढंग से निर्धारित करने का कार्य उसके उत्पादन के मूल स्थान पर अदला-बदली द्वारा किया जाता है। सोने का जब मुद्रा केम में परिचलन पारम्भ होता है, तब उसका मूल्य पहले से मालूम होता है। १७ वीं सदी के अन्तिम दशकों सक यह बात प्रमाणित की जा चुकी थी कि मुद्रा भी एक माल होती है। लेकिन यह विश्लेषण की केवल शैशवकालीन अवस्था का कदम था। कठिनाई यह समझने में नहीं होती कि मुद्रा भी एक माल होती है, बल्कि कठिनाई यह सोचने में सामने आती है कि कोई माल कैसे, और किन उपायों से मुद्रा बन जाता है। मूल्य की सबसे सरल अभिव्यंजना-अर्थात् 'क' माल का 'प' परिमाण 'ब' माल का 'फ' परिमाण-में हम यह पहले ही देख चुके हैं कि जिस वस्तु में किसी अन्य वस्तु के मूल्य का परिमाण व्यक्त हो जाता है, उसका यह सम-मूल्य रूप ऐसा प्रतीत होता है, जैसे वह इस सम्बंध से स्वतंत्र और प्रकृति का दिया हुमा कोई सामाजिक गुण हो। हम यह भी बता चुके हैं कि यह दिखावटी रूप से उत्तरोतर अधिक बढ़ होता गया और अन्त में कैसे उसकी स्थापना हुई। जैसे ही सार्वत्रिक सम मूल्य प किसी खास माल के शारीरिक रूप के साथ एकाकार हो जाता है और इस प्रकार जैसे ही उसका मुद्रा रूप में स्फटिकीकरण हो जाता है, वैसे ही यह बिलावटी म अन्तिम तौर पर स्थापित हो जाता है। उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि सोना इसलिये मुद्रा नहीं बन गया है कि बाकी सब माल अपना मूल्य उसके द्वारा व्यक्त करते हैं, बल्कि, इसके विपरीत, बाकी सब माल सार्वत्रिक ढंग से इसलिये सोने में अपना मूल्य व्यक्त करते हैं कि सोना मुद्रा है। प्रक्रिया के बीच के कदम परिणाम में लुप्त हो जाते हैं, और उनका चिन्ह तक कहीं दिखाई नहीं देता। माल देखते हैं कि उनके कुछ किये-घरे बिना ही उनका मूल्य उनके साथ-साथ पाया जाने वाला एक और माल पहले से ही पूरी तरह व्यक्त कर रहा है। ये चीखें - सोना और चांदी -पृथ्वी के गर्भ से निकलते - . . . - विद्वान प्रोफ़ेसर रोश्चेर पहले हमें यह बताकर कि " 'मुद्रा की झूठी परिभाषाएं दो मुख्य दलों में बांटी जा सकती हैं : वे परिभाषाएं, जो मुद्रा को माल से कुछ अधिक समझती है, और वे, जो मुद्रा को माल से कुछ कम समझती है",- मुद्रा की प्रकृति के बारे में लिखी गयी अनेक रचनामों की एक लम्बी और पंचमेल सूची गिना जाते है। इस सूची से पता चलता है कि वह मुद्रा के सिद्धान्त के वास्तविक इतिहास की जानकारी के पास तक नहीं फटक पाये हैं। फिर वह हमें यह उपदेश सुनाते है कि "जहां तक बाक़ी बातों का सम्बंध है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अधिकतर माधुनिक अर्थशास्त्री उन विलक्षणतानों को पर्याप्त रूप से ध्यान में नहीं रखते, जिनके कारण मुद्रा बाकी तमाम मालों से भिन्न होती है" (क्योंकि तब वह प्राबिर या तो माल से कुछ अधिक होती है और या उससे कुछ कम होती है ! ) : "इस हद तक गानिल्ह की प्रध-व्यापारवादी प्रतिक्रिया सर्वथा farement TET I" (Wilhelm Roscher, “Die Grundlagen der Nationaloekonomie", तीसरा संस्करण, 1858, पृ० २०७-२१०।) कुछ अधिक ! कुछ कम! पर्याप्त रूप से नहीं! इस इद तक! सर्वथा नहीं! वाह, वाह, विचारों और भाषा का कैसा स्पष्ट तथा कितना सटीक प्रयोग किया गया है ! कहीं की इंट, कहीं के रोड़े से कुनबा जोड़ने वाली इस प्रोफ़ेसराना बकवास को मि• रोश्चर ने बहुत नम्रतापूर्वक अर्थशास्त्र की "शारीरीय - देह-व्यापारीय पत्ति" का नाम दिया है। किन्तु एक आविष्कार का श्रेय तो उनको मिलना ही चाहिए, और वह यह कि मुद्रा एक "सुखद माल" होती है। ! -