पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/१३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मुद्रा, या मालों का परिचलन १३५ . . . - लेकिन रूप के ये दोनों परिवर्तन माल और मुद्रा के विनिमय, उनके पारस्परिक स्थान परिवर्तन के फलस्वरूप होते हैं। केही सिक्के, जो बेचने वाले के हाथ में माल के हस्तांतरित रूप की तरह पाते हैं, वे उसके हाथ से माल के सर्वथा हस्तांतरनीय रूप की तरह जाते हैं। वे बार स्थानांतरित होते हैं। कपड़े का पहला रूपान्तरण इन सिक्कों को बुनकर की मेव में गल देता है, दूसरा रूपान्तरण उनको उसकी जेब से निकाल लेता है। एक ही माल दो बार जिन परम्पर उल्टे परिवर्तनों में से गुजरता है, वे इस बात में प्रतिविम्बित होते हैं कि वे ही सिक्के दो बार, मगर उल्टी विशामों में स्थानांतरित हो जाते हैं। इसके विपरीत, यदि रूपान्तरण की केवल एक अवस्था ही पूरी होती है, यानी अगर या तो केवल विक्रय या केवल क्रय ही होता है, तो मुद्रा का एक खास सिक्का केवल एक बार अपना स्थान बदलता है। उसका दूसरी बार अपने स्थान को बदलना सदा माल के दूसरे रूपान्तरण को व्यक्त करता है, जब कि उसके मुद्रा-रूप का परिवर्तन फिर से होता है। उन्हीं सिक्कों का बार-बार अपना स्थान बबलना न केवल उन असंख्य रूपान्तरणों के क्रम का प्रतिबिम्ब है, जिनमें से एक प्रकेला माल गुजर चुका है, बल्कि वह पाम तौर पर मालों की दुनिया में होने वाले प्रसंख्य रूपान्तरणों के एक दूसरे के साथ गुंथे हुए होने का भी प्रतिविम्ब है। यह बात स्वतःस्पष्ट है कि यह सब केवल मालों के साधारण परिचलन पर ही लागू होता है, और अभी हम केवल इसी रूप पर विचार कर रहे हैं। प्रत्येक माल, जब वह पहली बार परिचलन में प्रवेश करता है और उसका प्रथम रूप- परिवर्तन होता है, तो केवल फिर परिचलन के बाहर जाने के लिये ही ऐसा करता है, और उसका स्थान दूसरे माल ले लेते हैं। इसके विपरीत, मुद्रा, परिचलन के माध्यम के रूप में, लगातार परिचलन के क्षेत्र के भीतर ही रहती है और उसी में चक्कर काटती रहती है। इसलिये सवाल यह उठता है कि यह क्षेत्र लगातार कितनी मुद्रा हजम करता जाता है? किसी भी देश में हर रोज एक ही समय पर, लेकिन अलग-अलग जगहों में मालों के बहुत से एकांगी रूपान्तरण होते रहते हैं, यानी, दूसरे शब्दों में, बहुत से भय और विक्रय होते रहते हैं। मालों का उनके दामों के द्वारा पहले से ही मुद्रा की निश्चित मात्रामों के साथ कल्पना में समीकरण कर लिया जाता है। और चूंकि परिचलन के जिस रूप पर हम इस समय विचार कर रहे हैं, उसमें मुद्रा और माल सदा शारीरिक रूप में सामने-सामने पाकर बड़े होते हैं, और एक क्रय के सकारात्मक ध्रुव पर खड़ा हो जाता है और दूसरा विक्रय के नकारात्मक ध्रुव पर, इसलिये यह बात साफ है कि परिचलन के माध्यम की भावश्यक मात्रा पहले से ही इस बात से निश्चित हो जाती है कि इन सब मालों के नामों को जोड़ने पर कुल कितनी रकम बैठती है। सच पूछिये, तो मुद्दा असल में सोने की उस मात्रा या रकम का प्रतिनिधित्व करती है, जो मालों के नामों के कुल बोड़ के द्वारा पहले से ही भावगत ढंग से अभिव्यक्त हो चुकी है। इसलिये इन दो कमों की समानता स्वतःस्पष्ट है। किन्तु हम यह जानते हैं कि मालों के मूल्यों के स्थिर रहने पर उनके राम सोने के (मुद्रा के पार्ष के) मूल्य-परिवर्तन के साथ घटते-बढ़ते रहते हैं। सोने का मूल्य जितना रता है, मालों के राम उसी अनुपात में पड़ जाते हैं। वह जितन पड़ता है, मालों के नाम उसी अनुपात में पिर पाते हैं। अब यदि सोने के मूल्य में इस तरह के पड़ाव या गिराब के फलस्वरूप मालों के दाम गिरते या पढ़ते हैं, तो चालू महा की मात्रा भी उसी हर तक कम हो जाती है या बड़पाती है। यह सच है कि इस पूरत में स्वयं मुद्रा के कारण ही . . ..