पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/१५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मुद्रा, या मालों का परिचलन १४६ . और इसलिए उसमें यह ममता होती है कि स्वयं उसका स्थान एक प्रतीक ले ले। लेकिन एक बीच बरी होती है। उस प्रतीक को पुब बस्तुगत समाविक मान्यता प्राप्त होनी चाहिए, और कापस का प्रतीक यह मान्यता इस तरह प्राप्त करता है कि राज्य जबरन उसका चलन अनिवार्य बना देता है। राज्य का यह प्रावेश, जिसे मानना सब के लिए जारी होता है, परिचलन के केवल उस अन्वनी क्षेत्र में ही कारगर साबित हो सकता है, जिसकी सीमाएं उस समाज के प्रदेश की सीमाएं होती हैं। लेकिन मुद्रा भी केवल इसी क्षेत्र में बालू माध्यम के रूप में अपना कार्य पूरी तरह पूरा करती है, यानी सिक्का बन जाती है। . अनुभाग ३- मुद्रा . मुद्रा वह माल है, जो मूल्य की माप का काम करता है और जो या तो खुद और या किसी प्रतिनिधि के द्वारा परिचलन के माध्यम का काम करता है। इसलिए सोना (या चांदी) मुद्रा है। एक मोर तो वह उस वक्त मुद्रा की तरह काम करता है, जब उसे अपने सुनहरे व्यक्तित्व के साथ उपस्थित होना पड़ता है। उस समय वह मुद्रा-माल होता है, जो केवल भावगत नहीं होता, जैसा कि वह मूल्य की माप का काम करते समय होता है, और जिसमें यह ममता भी नहीं होती कि उसका प्रतिनिधित्व कोई प्रतीक कर सके, जैसी कि चालू माध्यम का काम करते समय उसमें होती है। दूसरी ओर, सोना उस वक्त भी मुद्रा की तरह काम करता है, जब अपने कार्य के प्रताप से, चाहे यह कार्य वह बुर करता हो और चाहे किसी प्रतिनिधि के द्वारा कराता हो, वह मूल्य का वह अनन्य रूप बनकर रह जाता है, जो उपयोग-मूल्य के मुकाबले में, जिसका प्रतिनिधित्व कि बाकी सब माल करते हैं, विनिमय-मूल्य के अस्तित्व का एक मात्र पर्याप्त रूप होता है। क) अपसंचय . . मालों के दो परस्पर विरोधी रूपान्तरण जिस प्रकार लगातार परिपषों में घूमते रहते हैं, या भय और विक्रम का अनवरत प्रबाप और बारी-बारी से सामने पाने वाला न मुद्रा के अविराम चलन में, या मुद्रा परिचालन की perpetuum mobile (शाश्वत प्रेरक शक्ति) का जो काम करती है, उसमें प्रतिविम्बित होता है। किन्तु जैसे ही पान्तरणों का क्रम बीच में इस बात से कि जहां तक सोना और चांदी सिक्के है, अथवा जहां तक वे केवल परिचलन के माध्यम का काम करते हैं, वहां तक वे अपने प्रतीक मात्र बन जाते हैं, निकोलस बार्बोन ने यह निष्कर्ष निकाला है कि सरकारों को "मुद्रा को ऊपर उठाने" ("to raise money") का अधिकार होता है, यानी वे चांदी के उस वजन को, जो शिलिंग कहलाता है, उससे बड़े वजन का- जैसे कि क्राउन का-नाम दे सकती है और इस तरह अपने लेनदारों को काउनों के बजाय शिलिंग दे सकती है। उन्होंने लिखा है : “मुद्रा बार-बार गिनी जाने पर घिस जाती है और हल्की हो जाती है... सौदा करते समय लोग चांदी की मात्रा का नहीं, मुद्रा के अभिधान और चलन का जयाल करते है..." "धातु पर लगी हुई सरकारी मुहर उसे मुद्रा बनाती है।" (N. Barton, उप. पु., पृ. २९, ३०, २५) .