पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/१७६

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पूंजी का सामान्य सूत्र १७३ . . बिल्कुल ठीक-ठीक म यह है :-मा-मु', वहाँ मु' =+4मुबह राम, मो शुरू में पेशगी के म में लगायी गयी थी, + वृद्धि की सम। इस वृद्धि को, या जितनी राम मूल मूल्य से स्यादा होती है, उसको में "अतिरिक्त मूल्य" ("surplus value) कहता हूं। इसलिए, शुरु में बो मूल्य पेशगी के रूम में लगाया जाता है, वह परिचलन के दौरान में न सिर्फ पूरे का पूरा बना रहता है, बल्कि उसमें अतिरिक्त मूल्य भी पाबाता है, यानी उसका विस्तार हो जाता है। यही गति मूल्य को पूंजी में बदल देती है। जाहिर है, यह भी सम्भव है कि मा-म-मा में, वो परम विन्तु मा-मा, बो, मान लीबिये, अनाव और कपड़ा है, मूल्य की अलग-अलग मात्रामों का प्रतिनिधित्व करते. हों। कास्तकार अपना अनाव उसके मूल्य से अधिक में बेच सकता है, या यह कपड़ा उसके मूल्य से कम में खरीद सकता है। दूसरी ओर, यह भी मुमकिन है कि कपड़ों का व्यापारी यही करने में सफल हो जाये। परन्तु परिचलन के जिस म पर हम इस समय विचार कर रखें है, उसमें मूल्य के ऐसे अन्तर केवल पाकस्मिक होते हैं। अनाव और कपड़े के एक दूसरे का सम-मूल्प होने से यह प्रक्रिया सर्वचा निरर्वक नहीं हो जाती, जिस प्रकार वह म-मा-म में हो जाती है। बल्कि उनके मूल्यों का समान होना इस प्रक्रिया के स्वाभाविक रूप में सम्पन्न होने की भावश्यक शर्त है। खरीदने के लिए बेचने की पिया का बोहराया जाना या उसका नवीकरण स्वयं इस पिया के गद्देश्य द्वारा सीमामों में सीमित रखा जाता है। उसका उद्देश्य होता है उपभोग, अपवा किन्हीं जास मावश्यकतानों की तुष्टि; यह गोल्प परिचलन के क्षेत्र से बिल्कुल अलग होता है। लेकिन जब हम बेचने के लिए खरीदते हैं, तब हम, इसके विपरीत, जिस बीच से प्रारम्भ करते हैं, उसी बीच पर खतम करते हैं, अर्थात् तब हम मुद्रा से-विनिमय-मूल्य से -पारम्भ करते हैं और उसी पर समाप्त करते हैं। और इसलिए यहाँ पर गति मन्तहीन हो जाती है। इसमें सन्देह नहीं कि यहां पर मु-म+Aम हो जाती है, या १०० पार ११० परिबन बाते हैं। लेकिन जब हम उनके केवल गुणात्मक पहलू को देखते हैं, तो ११० पीर और १०० पौड एक ही पीच होते हैं, पर्वात् बोनों मुद्रा होते हैं। और यदि हम उनपर परिमाणात्मक दृष्टि से विचार करें, तो १०० पौस की तरह ११० पौड भी एक निश्चित एवं सीमित मूल्य की कम होते हैं। अब यदि ११० पाँउ मुद्रा के ममें सर्च कर दिये गायें, तो उनकी भूमिका समाप्त हो जाती है। तब वे पूंजी नहीं रहते। परिचलन से बाहर निकाल लिये जाने पर बड़ अपसंचित कोष बन जाते हैं, और यदि कयामत के दिन तक उती म में पड़े रहें, तो भी उनमें एक फार्विग की वृद्धि नहीं होगी। प्रतएव यदि एक बार मूल्य का विस्तार करना हमारा उद्देश्य बन जाता है, तो १०० पौड के मूल्य में वृद्धि करने के लिए जितनी प्रेरणा पी, उतनी ही ११० पोल के मूल्य में वृद्धि करने के लिए भी होती है। कारण कि दोनों ही विनिमय-मूल्य की केवल सीमित अभिव्यंजनाएं हैं और इसलिये दोनों का ही यह पेशा है कि परिमाणात्मक वृद्धि के द्वारा निरपेक बन के जितने निकट पहुंच सकते हैं, पहुंचने की कोशिश करें। मनिक तौर पर हम निश्चय ही उस मूल्य में, मो शुरू में लगाया गया था, पानी १०० पौर में, और उस १० पौड के उस अतिरिक्त मूल्य में मेरे कर सकते हैं, वो परिचलन के दौरान में उसमें पड़ गया है, परन्तु यह मेव तत्काल ही मिट जाता है। मिया के अन्त में यह नहीं होता कि हमें एक हाथ में एक के १०० पोट मिले और दूसरे में १० पौडका अतिरिक्त मूल्य मिले। हमें तो बस ११० पौड का मूल्य मिलता है, वो विस्तार की क्रिया . .