पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/१८०

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पूंजी का सामान्य सूत्र १७७ , , स्वचालित विस्तार होता है। चूंकि वह मूल्य है, इसलिए उसमें पुर अपने में मूल्य बोर लेने का अलौकिक गुण पैदा हो गया है। वह बीवित सन्तान पैदा करता है, या यूं कहिये कि कम से कम सोने के मजे तो देता है। प्रतः मूल्य चूंकि एक ऐसी प्रक्रिया का सक्रिय तत्व है और चूंकि वह कभी मुद्रा का और कभी मालों का रूप धारण करता रहता है, लेकिन इन तमाम परिवर्तनों के बावजूद खुद सुरक्षित रहता है और विस्तार करता जाता है, इसलिये उसे किसी ऐसे स्वतंत्र रूप की पावश्यकता होती है, जिसके द्वारा उसे किसी भी समय पहचाना जा सके। और ऐसा कम उसे केवल मुद्रा की शकल में ही प्राप्त होता है। मुद्रा के रूप में ही मूल्य खुद अपने स्वयंस्फूर्त जनन की प्रत्येक मिया का श्रीगणेश करता है, उसे समाप्त करता है और उसे फिर से प्रारम्भ करता है। उसने किया था १०० पौड की शकल में, अब वह ११० पास हो गया है, और यह कम मागे भी इसी तरह चलता जायेगा। लेकिन खुद मुद्रा मूल्य के दो स्मों में से केवल एक है। जब तक वह किसी माल का रूप नहीं धारण करती, तब तक वह पूंजी नहीं बनती। प्रपसंचय की तरह यहां पर मुद्रा और मालों के बीच कोई विरोध नहीं है। पूंजीपति जानता है कि सभी माल, चाहे जितने भहे विलाई देते हों या उनमें से चाहे जितनी बदबू माती हो, सचमुच और वास्तव में मुद्रा होते हैं, वे अन्दर से खतना किये हुए शुख याबी होते हैं, और उससे भी बड़ी बात यह है कि वे मुद्रा से और अधिक मुद्रा बनाने का प्राश्चर्यजनक साधन होते हैं। साधारण परिचलन मा-मु- मा में मालों के मूल्य ने अधिक से अधिक एक ऐसा रूप प्राप्त किया था, जो उनके उपयोग-मूल्यों से स्वतंत्र होता है, यानी उसने मुद्रा का रूप प्राप्त किया पा। लेकिन वही मूल्य अब परिचलन मु-मा-मु में, या पूंजी के परिचलन में, यकायक एक ऐसे स्वतंत्र पदार्थ के रूप में सामने प्राता है, जिसकी स्वयं अपनी गति होती है और जो स्वयं अपने एक ऐसे जीवन-क्रम में से गुजरता है, जिसमें मुद्रा और माल उसके रूप मात्र होते हैं, जिनको वह बारी-बारी से ग्रहण करता और त्यागता रहता है। यही नहीं, केवल मालों के सम्बंधों का प्रतिनिधित्व करने के बजाय वह अब मानों खुद अपने साथ निजी सम्बंध स्थापित कर लेता है। वह मूल मूल्य के रूप में अपने को अतिरिक्त मूल्य के रूप में खुद अपने से अलग कर लेता है, जैसे कि, ईसाई धर्म के अनुसार, भगवान पिता अपने को भगवान पुत्र के रूप में अपने से अलग करता है, मगर फिर भी दोनों एक ही रहते हैं और दोनों की पाय भी एक सी होती है। कारण कि शुरू में लगाये गये १०० पॉर १० पाँर के अतिरिक्त मूल्य के द्वारा ही पूंजी बनते हैं, और जैसे ही यह होता है, यानी जैसे ही पुत्र और पुत्र के द्वारा पिता उत्पन्न होता है, वैसे ही उनका अन्तर मिट जाता है और वे फिर एक-यानी ११० पौर-हो जाते हैं। प्रतः मूल्य अब क्रिया-रत मूल्य, अथवा क्रिया-रत मुद्रा, हो जाता है, और इस रूम में वह पूंजी होता है। वह परिचलन के बाहर पाता है, उसमें फिर प्रवेश करता है, अपने परिपष के भीतर अपने को सुरक्षित रखता है और अपना गुणन करता है, पहले से बढ़ा हुमा प्राकार लेकर फिर परिचलन के बाहर पाता है और फिर इसी क्रम को नये सिरे से प्रारम्भ कर देता है।' . - . 1 qat (“portion fructifiante de la richesse accumulée... valeur permanente, multipliante" [" संचित धन का एक फलोत्पादक भाग... स्थायी रूप से स्वयं अपना गुणन करने वाला मूल्य"]) (Sisnondi, "Nouweaux Principes d Econ. Polit.", ग्रंथ १,पृ. ८८,८९)। 12-45