पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/२९

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भूमिका - - . . में प्रकट होता है। इसके परिणामस्वरूप मास को केवल एक ही बात की चिन्ता रहती है, वह यह कि कड़ी वैज्ञानिक खोज के द्वारा सामाजिक परिस्थितियों की एक के बाद दूसरी पाने बाली अलग-अलग निश्चित व्यवस्थानों की पावश्यकता सिद्ध करके दिखा दी जाये और अधिक से अधिक निष्पन भाव से उन तन्यों की स्थापना की जाये, जो मार्स के लिये बुनियादी प्रस्थान-बिन्दुओं का काम करते हैं। इसके लिये बस इतना बहुत काफ़ी है, यदि वह वर्तमान व्यवस्था की पावश्यकता सिद्ध करने के साथ-साथ उस नयी व्यवस्था की पावश्यकता भी सिख कर दे, जिसमें कि वर्तमान व्यवस्था को अनिवार्य रूप से बदल जाना है। और यह परिवर्तन हर हालत में होता है, चाहे लोग इसमें विश्वास करें या न करें और चाहे वे इसके बारे में सजग हों या न हों। मार्स सामाजिक प्रगति को प्राकृतिक इतिहास की एक प्रक्रिया के रूप में पेश करता है, जो ऐसे नियमों के अनुसार चलती है, जो न केवल मनुष्य की इच्छा, चेतना और समझ-यूम से स्वतंत्र होते हैं, बल्कि, इसके विपरीत, जो इस इच्छा, चेतना और समय- बूम को निर्धारित करते हैं...यदि सम्यता के इतिहास में चेतन तत्व की भूमिका इतनी गौण है, तो यह बात स्वतः स्पष्ट है कि जिस पालोचनात्मक लोन की विषय-वस्तु सम्यता है, वह अन्य किसी भी वस्तु की अपेक्षा चेतना के किसी भी रूप पर अथवा चेतना के किसी भी परिणाम पर कम ही प्राधारित हो सकती है। तात्पर्य यह है कि यहां विचार नहीं, बल्कि केवल भौतिक घटना ही प्रस्थान-बिन्नु का काम कर सकती है। इस प्रकार की खोज किसी तव्य का मुकाबला मोर तुलना विचारों से नहीं करेगी, बल्कि वह एक तम्य का मुकाबला और तुलना किसी दूसरे तन्य से करने तक ही अपने को सीमित रखेगी। इस खोज के लिये महत्वपूर्ण बात सिर्फ़ यह है कि दोनों तथ्यों की छानबीन पचासम्भव बिल्कुल सही-सही की जाये, और यह कि एक दूसरे के सम्बंध में वे एक विकास-क्रिया की दो भिन्न अवस्थानों का सचमुच प्रतिनिधित्व करें। लेकिन सबसे अधिक महत्त्व इस बात का है कि एक के बाद एक सामने पाने वाली उन अवस्थानों, अनुकमों और श्रृंखलामों के कम का कड़ाई के साथ विश्लेषण किया जाये, जिनके रूप में इस प्रकार के विकास की अलग-अलग मंसिलें प्रकट होती है। लेकिन यह कहा जा सकता है कि पार्षिक जीवन के सामान्य नियम तो सवा एक से होते है, चाहे वे भूतकाल पर लागू किये जायें और चाहे वर्तमान काल पर। पर इस बात से मास साफ़ तौर पर इनकार करता है। उसके मतानुसार, ऐसे प्रमूर्त नियम होते ही नहीं। इसके विपरीत, उसकी राय में तो प्रत्येक ऐतिहासिक युग के अपने अलग नियम होते हैं... जब समाज विकास के किसी खास युग को पीछे छोड़ देता है और एक मंदिल से दूसरी मंजिल में प्रवेश करने लगता है, तब उसी बात से उसपर कुछ दूसरे नियम भी लागू होने लगते हैं। संक्षेप में कहा जाये, तो पार्षिक बीवन हमारे सामने एक ऐसी किया प्रस्तुत करता है, जो बीव-विज्ञान की अन्य शालाओं में पाये जाने बाले विकास के इतिहास से बिलकुल मिलती-गुलती है। पुराने प्रशास्त्रियों ने प्रार्षिक नियमों को भौतिक विज्ञान तथा रसायन-विज्ञान के नियमों के समान बताकर उनकी प्रकृति को गलत सममा पा। घटनामों का अधिक गहरा प्रभ्ययन करने पर पता लगा कि सामाविक संघटनों के बीच अलग-अलग रंग के पौषों या पशुत्रों के समान ही बुनियादी भेव होता है। ऐसे ही नहीं, बल्कि यह कहना चाहिये कि चूंकि इन सामाजिक संघटनों की पूरी बनावट अलग-अलग रंग की होती है, उनके प्रवयव अलग-अलग प्रकार के होते हैं और ये अवयव अलग-अलग तरह की परिस्थितियों में काम करते हैं, इसलिये उनमें एक ही घटना बिल्कुल भिन्न नियमों के प्राचीन हो जाती है। उदाहरण के लिये, मार्स इससे इनकार करता है कि मावावी का नियम प्रत्येक . .