पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/३१५

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३१२ पूंजीवादी उत्पादन मुंह से सुनाई देने लगी है। वह यह कि यदि मेहनत करने वाले गरीब लोगों (Industrious poor) को पांच दिन काम करके ही बीवन-निर्वाह के लायक पैसे मिल जाते हैं, तो पूरे दिन काम नहीं करेंगे। और इससे ये लोग यह नतीजा निकालते हैं कि वो पी बीवन के लिये बिल्कुल मावश्यक है, उनको भी कर लगाकर या किसी और तरीके से महंगा बना देना चाहिये, जिससे मेहनत करने वाला बस्तकार और कारीगर हाते में पूरे रोख लगातार मेहनत करने के लिये मजबूर हो जाय। मैं उन महान राजनीतियों की भावना से भिन्न भावना रखने की इबाबत चाहता हूं, वो इस राज्य के मेहनतकश लोगों को सदा पुलामी में ("the perpetual slavery of the working people") रखने की कोशिश कर रहे हैं। ये लोग उस माम कहावत को भूल जाते हैं कि "all work and no play" (यदि चौबीस घण्टे काम किया जाये और मनोरंजन न हो, तो दिमाग कुन्न हो जाता है) या अंग्रेस लोगों को अपने दस्तकारों और कारीगरों की उस होशियारी और उस महारत पर घमन्ड नहीं रहा है, जिसकी वजह से इंगलैस में बना हर तरह का माल इतना नाम पैदा करने और इतनी सास कायम करने में कामयावहमा है? इस होशियारी और इस महारत की क्या वजह है ? इसकी सम्भवतया इसके सिवा और कोई वजह नहीं थी कि यहां के मेहनत करने वाले अपने ढंग से अपना मनोरंजन पौर विमाम कर लेते हैं। यदि उनसे साल में बारहों महीने और हप्ते में पूरे दिन लगातार मेहनत करापी नाती और बार-बार एक सा काम लिया जाता, तो पया उनकी सारी होशियारी कुन्द न पढ़ पाती और क्या वे सदा मुस्तैद रहने और ममता का परिचय देने के बजाय सुस्त और बुडून बन जाते ? और सदा के लिये ऐसी गुलामी में फंस जाने पर क्या हमारे कारीगरों की सारी स्वाति कायम रहने के बजाय नष्ट हो जाती?..और ऐसे कोल्हू के बैलों (hard-driven animals) से हम कैसी कारीगरी की उम्मीद कर सकते ?.. अंग्रेज मजदूरों में से बहुत से चार दिनों में उतना काम कर गलते हैं, जितना एक फ्रांसीसी मखदूर पांच या छ: दिन में करेगा। परन्तु यदि अंग्रेजों को सबा पुलामों की तरह काम में पते रहना है, तो हमें रहै किफांसीसियों की तुलना में भी शारीरिक दृष्टि से उनका पतन हो जायेगा। हमारे लोग पुट में वीरता के लिये प्रसिद्ध है। पर क्या हम यह नहीं कहते कि इसका कारण यह है कि उनके पेट में इंगलग का बढ़िया भुना हुमा गाय का गोश्त और पुरिंग होते हैं और उनके दिल में अंग्रेजों की वैचानिक स्वतंत्रता की भावना होती है ? और तब क्या यह सम्भव नहीं है कि हमारे दस्तकारों और कारीगरों के होशियारी और महारत में पोरों से बेहतर होने की यह बबह होकि उनको अपने जीवन की खुद व्यवस्था करने की स्वाधीनता और पावादी मिली हुई है ? और मैं माशा करता हूं कि हम यह अधिकार और यह मच्छा जीवन उनसे कमी न छीनेंगे, जो न केवल उनकी वीरता का, बल्कि उनकी बनता और चतुरताका भी होत हो “Essay on Trade and Commerce" ("BUTT TT informa e gros furier') के लेखक ने इसका यह जवाब दिया है: बढ़ाया जाये '] (दूसरा संस्करण, London, 1755) की तरह "Universal Dictionary of Trade and Commerce' ('व्यापार और वाणिज्य का सार्वभौमिक कोष') के परिशिष्ट में भी इस विषय की चर्चा की है। खुद तथ्यों की सचाई का प्रमाण हमें अन्य बहुत से लेखकों से मिल जाता है, जिनमें जोसिया दुकर शामिल है। 1 Postlethwayt, उप. पु., "First Preliminary Discourse" ('पहला प्रारम्भिक निबन्ध'), पृ. १४॥