पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/३६०

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सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य की धारणा ३५७ हो, तो उसके प्रावश्यक मम-काल की अवधि भी मालूम हो जाती है। लेकिन काम के पूरे दिन में से प्रावश्यक भम-काल को घटाकर अतिरिक्त श्रम की अवधि का पता लगाया जाता है। बारह घण्टों में से बस घण्टे घटा दीजिये, तो दो बचते हैं, पर यह समझ में नहीं पाता कि पहले से निश्चित परिस्थितियों में अतिरिक्त भन को पाखिर दो घण्टे से ज्यादा कैसे खींचा जा सकता है। निस्सन्देह, पूंजीपति मजबूर को पांच शिलिंग के बजाय चार शिलिंग छ: पेन्स या उससे भी कम दे सकता है। चार शिलिंग और छ: पेन्स के इस मूल्य के पुनरुत्पादन के लिये नौ घण्टे का श्रम-काल ही पर्याप्त होगा, और इसलिये तब पूंजीपति को दो घण्टे के बजाय तीन घडे का अतिरिक्त श्रम मिलेगा और अतिरिक्त मूल्य एक शिलिंग से बढ़कर मारह पेन्स का हो जायेगा। लेकिन यह सब कुछ केवल मजदूर की मजबूरी को उसकी श्रम-शक्ति के मूल्य से भी नीचे गिराकर ही सम्भव हो सकेगा। बह नौ घण्टे में दो बार शिलिंग पोर छः पेन्स पैदा करेगा, उनसे वह पहले की तुलना में बस प्रतिशत का जीवनोपयोगी वस्तुएं खरीद सकेगा और इसलिये उसकी श्रम-शक्ति का समुचित पुनरुत्पावन नहीं हो पायेगा। इस सूरत में अतिरिक्त श्रम पहले से बढ़ तो जायेगा, परन्तु केवल अपनी सामान्य सीमामों का प्रतिक्रमण करके; मावश्यक श्रम- काल के क्षेत्र के एक भाग को जबर्दस्ती हदपकर ही यहां उसका क्षेत्र बढ़ पायेगा। गेस व्यवहार में यह तरीका एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। फिर भी, हम यहाँ उसपर विचार नहीं कर सकते, क्योंकि हम यह मानकर चल रहे हैं कि श्रम-शपित समेत सभी माल अपने पूरे मूल्य पर ही बे और खरीदे जाते हैं। यह मान लेने के बाद, श्रम-शक्ति के उत्पादन के लिये अववा उसके मूल्य के पुनरुत्पादन के लिये जो श्रम-काल मावश्यक है, उसे मजदूर की मजबूरी को उसकी श्रम-शक्ति के मूल्य से नीचे गिराकर कम नहीं किया जा सकता। उसके लिये तो श्रम-शक्ति के इस मूल्य को ही नीचे गिराना होगा। यदि काम के दिन की लम्बाई पहले से निश्चित हो, तो अतिरिक्त श्रम की वृद्धि केवल पावश्यक श्रम-काल की कमी द्वारा ही सम्भव है। अतिरिक्त श्रम को बढ़ा देने से प्रावश्यक भम-काल अपने पाप नहीं घट जायेगा। जिस मिसाल को लेकर हम चल रहे हैं, उसमें यह मावश्यक है कि अम-शक्ति के मूल्य में सचमुच बस प्रतिशत की कमी पा जाये, ताकि पावश्यक भम-काल बस प्रतिशत घट जाये, अर्थात् बस घण्टे से नौ घण्टे हो जाये, और ताकि इसके फलस्वरूप अतिरिक्त प्रम को दो घण्टे से बढ़ाकर तीन घण्टे का कर दिया जाये। किन्तु मम-शक्ति के मूल्य में इस प्रकार कमी पाने का यह मतलब होता है कि जीवन के लिये प्रावश्यक वे ही वस्तुएं, जो पहले बस घण्टे में तैयार हुमा करती थी, अब नौ घण्टे में तैयार हो सकती हैं। लेकिन मम को उत्पादकता में वृद्धि हुए बिना ऐसा असम्भव है। मिसाल के लिये, मान लीजिये कि एक मोची एक खास तरह के प्राचारों की मदद से बारह . " . . बेचता है, उतनी ही पाता है ... हर प्रकार के श्रम के सम्बंध में यह होना लाजिमी है और यही असल में होता है कि मजदूर के जीवन-निर्वाह भर के लिये जो कुछ है, बस उसी guait frugt efter et unet I"] (Turgot, “Réflexions, &c.", Oevres, Daire का संस्करण, ग्रंथ १, पृ. १०1) "जीवन के लिये आवश्यक वस्तुओं का दाम ही असल में श्रम के उत्पादन का खर्चा होता है।" (Malthus, "Inquiry into, &c. Rent" [माल्थूस, लगान की प्रकृति और प्रति और उसका नियमन करने वाले सिद्धान्तों की जांच'], London, 1815, पृ. ४८, फुटनोट।)