पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/६०१

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५६८ पूंजीवादी उत्पादन और पावयक मन-काल १२ घण्टे में से अतिरिक्त श्रम के पटे पढाने से मालूम हो पाता है, तो हम नीचे लिले परिणाम पर पहुंचते हैं: घण्टे का अतिरिक्त श्रम १०० ६ घण्टे का प्रावश्यक श्रम १०० एक तीसरा सूत्र भी है, जिसका मैं वहां-तहां पहले ही बिक कर चुका हूं।वह यह है: अतिरिक्त मूल्य प्रतिरिक्त श्रम प्रवेतन श्रम ३) श्रम-शक्ति का मूल्य पावश्यक श्रम सवेतन श्रम ऊपर हम को विश्लेषण कर चुके हैं, उसके बाद इसकी कोई सम्भावना नहीं होनी चाहिये प्रवेतन से गुमराह होकर यह समझ बैठे कि पूंजीपति मम-गापित की नहीं, बल्कि सवेतन श्रम अतिरिक्त श्रम अम की कीमत चुकाता है। यह सूत्र का ही एक लोकगम्य म है। जिस हब मावश्यक श्रम तक राम मूल्य के बराबर होता है, उस हर तक पूंजीपति मम-शक्ति का मूल्य पुकाता है, और बदले में उसे स्वयं जीवित भम-शक्ति से अपनी इच्छानुसार काम लेने का अधिकार मिल जाता है। फलोपमोग का यह अधिकार दो कालों पर फैसा होता है। एक काल में मजदूर वह मूल्य पैरा करता है, जो केवल उसकी मम-शक्ति के मूल्य के बराबर होता है, यानी वह उसका सम-मूल्य पैदा करता है। पूंजीपति ने मन-शाक्ति का जो बाम पेशगी दिया था, उसके एवज में इस काल में उसे उसी दाम की पैदावार मिल जाती है। यह उसी तरह की बात है जैसे उसने बनी-धनावी तयार पैदावार वाखार में खरीद ली हो। दूसरे काल में, बो अतिरिक्त मन का काल होता है, अम-शक्ति के फलोपभोग का अधिकार पूंजीपति के लिये एक ऐसा मूल्य पैदा कर देता है, जिसके एवज में उसे कोई सम-मूल्य नहीं देना पड़ता है। इस काल में होने वाला मम-शक्ति का व्यय उसे मुफ्त में मिल पाता है। अतिरिक्त भन को इसी पर्व में अवेतन श्रम कहा जा सकता है। इसलिये केवल मन कराने का अधिकार ही पूंजी नहीं है, जैसा कि ऐडम स्मिथ समानते हैं। मूलतया, प्रवेतन मम कराने का अधिकार पूंची है।हर प्रकार का अतिरिक्त मूल्य, बह स्फटिकीकरण के बाद चाहे वो प (मुनाफा, सूब या लगान) चारण कर मे, वास्तव में भवेतन मन का मूर्त म होता है। इस प्रकार एक निश्चित मात्रा में दूसरों के वेतन मन पर पूंजी के अधिकार में उसके प्रात्म-विस्तार का रहस्य निहित है। यद्यपि फ़िषिमोक्रेट प्रतिरिक्त मूल्य के रहस्य में नहीं पैठ सके थे, तथापि इतनी बात gait faire # Arts of fun ufafcia 164 „une richesse indépendante et disponible quil na point achetée et qulil vend" [" एक ऐसा स्वतंत्र और क्रय-योग्य धन है, जिसे उसके मालिक ने खरीदा नहीं है, पर जिसे वह बेचता है"] (Turgot, "Reflexions sur la Formation et la Distribution des Richesses”, go 991)