पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/६३५

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पूंजीवादी उत्पादन यह बात सुविदित है कि एशिया और पूर्वी योरप में भी अंग्रेज कम्पनियां रेल बना रही हैं और इस काम के लिये उन्होंने देशी मजदूरों के साथ-साथ कुछ अंग्रेस मजदूरों को भी नौकर रखा हुमा है। इस प्रकार, उनको व्यावहारिक पावश्यकता से विवश होकर भम की तीव्रता के राष्ट्रगत भेवों का खयाल रखना पड़ा है, पर इससे उनका कोई नुकसान नहीं हुमा है। उनके अनुभव से प्रकट होता है कि हालांकि मजदूरी का स्तर भन की पोसत तीव्रता के न्यूनाषिक मनुस्म होता है, फिर भी मन का सापेक्ष बाम पाम तौर पर उसकी उल्टी दिशा में घटता- एच. केरी ने अपनी एक शुरु की प्रार्षिक रचना 'मजदूरी की बर पर एक निबंध में यह साबित करने की कोशिश की है कि अलग-अलग राष्ट्रों में मजदूरी वहाँ के काम के दिन की उत्पादकता के अनुलोम अनुपात में होती है। और इस अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध से केरी ने यह निष्कर्ष निकाला है कि मजदूरी हर जगह मम की उत्पादकता के अनुपात में घटती-बढ़ती है। अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन का हमने मो.पूरा विश्लेषण किया है, उस से यह बात स्पष्ट हो पाती है कि यह निष्कर्ष कितना बेतुका है। यदि फेरी ने अपनी सबा की रीति के अनुसार पाल मुंबकर और सतही ढंग से प्रांकड़ों की पंचमेल खिचड़ी में करणी चलाते रहने के बजाय खुब अपने पूर्वावयवों को प्रमाणित किया होता, तो भी यह निष्कर्ष बेतुका ही रहता। सबसे बढ़िया बात यह है कि केरी का यह दावा नहीं है कि परिस्थिति सचमुच वही है, जो उनके सिद्धान्त के अनुसार होनी चाहिये। कारण कि राज्य के हस्तक्षेप ने स्वाभाविक पार्षिक सम्बंधों को विकृत कर दिया है। इसलिये केरी की राय में अलग-अलग देशों की राष्ट्रीय मजदूरी का हिसाब लगाते समय हमें यह मानकर चलना चाहिये कि हर देश में मजदूरी का नो हिस्सा करों के रूप में राज्य के कोषागार में चला जाता है, वह मजदूर को ही मिलता है। मि० केरी को एक कदम मागे बढ़कर यह क्यों नहीं सोचना चाहिये कि ये "राज्य के स" कहीं पूंचीवादी विकास के 'स्वाभाविक" फल तो नहीं है? इस प्रकार का तर्क उनको शोभा देता है, क्योंकि पाखिर उन्होंने तो शुरू में यह घोषणा की थी कि पूंजीवादी उत्पादन के सम्बंध प्रकृति और विवेक के शाश्वत नियमों पर पापारित हैं और उनकी स्वतंत्र और सुमेल कार्रवाइयों में राज्य के हस्तक्षेप से केवल गड़बड़ ही पैदा होती है, और वार को यह पाविष्कार कर गला या कि दुनिया की मनी पर इंगलेज का जो बीतानी प्रभाव पड़ रहा है (और बोप्रभाव, लगता है, पूंजीवादी उत्पादन के प्राकृतिक नियमों से उत्पन्न नहीं होता), उसके कारण राज्य का हस्तक्षेप प्रावश्यक हो गया है, प्रात् उसके कारण प्रकृति तवा विवेक के इन नियमों को राज्य द्वारा संरक्षण की- allas (पानी) संरक्षण-प्रणाली की-पावश्यकता होने लगी है। इसके अलावा उन्होंने यह पाविष्कार भी किया था कि रिकार्गे तथा अन्य प्रशास्त्रियों के बिन प्रमेयों में वर्तमान सामाजिक विग्रहों और विरोषों को वनवड किया गया है, वे एक वास्तविक पार्विक पिया की भावगत उपन नहीं हैं, बल्कि, इसके विपरीत, इंगलैग में तथा अन्यत्र पूंजीवादी उत्पादन के को वास्तविक विरोष . 1 “Essay on the Rate of Wages; with an Examination of the Causes of the Differences in the Condition of the Labouring Population throughout the World". ('मजदूरी की दर पर एक निबंध, जिसमें संसार भर में श्रमजीवी प्राबादी की अवस्था में पाये जाने वाले भेषों के कारणों का भी विवेचन किया गया है'), Philadelphia, 18351