पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/६४२

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साधारण पुनरुत्पादन ६३६ मम की उरत प्रदा की जाती है, तो इसका कारण यह है कि उसने बो पैदावार पैदा की पी, वह पूंजी के रूप में लगातार उससे दूर हटती जाती है। लेकिन इस सब से इस तव्य में कोई अन्तर नहीं पाता कि पूंजीपति मजदूर को जो कुछ पेशगी देता है, वह पैदावार के रूप में साकार बना हुमा खुब मजदूर का ही श्रम होता है। मान लीजिये, एक किसान है, जिसे अपने सामन्त को बेगार बेनी पड़ती है। वह सप्ताह में ३ दिन खुद अपनी बमीन पर अपने उत्पादन के साधनों से काम करता है। बाकी ३ दिन उसे अपने सामन्त के खेतों पर बेगार करनी पड़ती है। अपने भम-कोष का वह लगातार पुनरुत्पादन करता रहता है, लेकिन यहां पर उसका कमी यह रूप नहीं होता कि उसके श्रम की उजरत कोई और व्यक्ति मुद्रा की शकल में पेशगी रे देता हो। लेकिन इसके साथ-साथ उसे सामन्त के लिये बेगार का जो प्रवेतन बम करना पड़ता है, वह भी स्वेच्छा से किये गये सवेतन मन का रूप कभी नहीं लेता। यदि एक रोब यकायक सामन्त इस किसान की जमीन, डोरों और बीज पर,-संक्षेप में कहिये, तो उसके उत्पादन के साधनों पर,-जुब कन्या कर ले, तो उस दिन से किसान को मजबूर होकर अपनी मम-शक्ति सामन्त के हाव बेचनी पड़ेगी। तब, अन्य बातों के ज्यों की त्यों रहते हुए, किसान पहले की तरह ही सप्ताह में ६ दिन मम करेगा-३ दिन खुद अपने लिये पौर ३ दिन अपने सामन्त के लिये, जो इस दिन से मजदूरी देने वाला पूंजीपति बन जायेगा। पहले की ही भांति अब भी वह उत्पादन के साधनों को उत्पादन के साधनों की तरह बर्ष करेगा और उनके मूल्य को पैदावार में स्थानांतरित कर देगा। पहले की ही भांति अब भी पैदावार का एक निश्चित भाग पुनरूत्पादन में लगाया जायेगा। लेकिन जिस मण बेगार मजदूरी में बदल जाती है, उसी क्षण से भम-कोष, जिसका उत्पादन और पुनरुत्पावन किसान पहले की तरह अब भी खुद ही करता है, सामन्त द्वारा, मजबूरी के रूप में पेशगी दी गयी पूंजी का म धारण कर लेता है। पूंजीवादी अर्थशास्त्री का संकुचित मस्तिष्क असली वस्तु को उस रूप से अलग नहीं कर पाता, जिसमें वह वस्तु प्रकट होती है। वह इस तथ्य को पोर से मांस मूंब लेता है कि पृथ्वी पर कुछ इने-गिने स्थान ही है, जहां पान भी भम-कोष पूंजी के रूप में विताई देता है।' यह सच है कि अस्थिर पूंजी का पूंजीपति के कोष में से निकालकर पेशगी दिये गये मूल्य का रूप केवल उसी समय समाप्त होता है जब हम पूंजीवावी उत्पादन पर हर बार नये 'जब पूंजी मजदूर को उसकी मजदूरी पेशगी देने के काम में भाती है, तब उससे श्रम के जीवन-निर्वाह के कोष में कोई वृद्धि नहीं होती।" (माल्यूस की रचना “Definitions in Pol. Econ." ['अर्थशास्त्र की परिभाषाएं'] के काजेनोवे के संस्करण काजेनोवे का फुटनोट; London, 1853, पृ. २२ )। "दुनिया में कुल जितने मजदूर हैं, उनमें से एक चौथाई से भी कम की मजदूरी पूंजीपति quotat." (Rich. Jones, "Textbook of Lectures on the Pol. Econ. of Nations” [रिचर्ड जोन्स, 'राष्ट्रों के अर्थशास्त्र सम्बंधी भाषणों की पाठ्य-पुस्तक'], Hertford, 1852, "बनाने वाले को" (यानी, मजदूर को) "हालांकि उसका मालिक पेशगी मजदूरी दे देता है, फिर भी असल में इसमें मालिक का कुछ वर्चा नहीं होता, क्योंकि इस मजदूरी का मूल्य, मय कुछ मुनाफ़े के, प्रायः उस वस्तु के बढ़े हुए मूल्य में सुरक्षित रहता है, जिसपर मजदूर का श्रम वर्ष होता है।" (A. Smith, उपर्युक्त रचना, पुस्तक २, अध्याय ३, पृ. ३११) . 141 gu - -