अतिरिक्त मूल्य का पूंजी में रूपान्तरण . इस तन्य से कि श्रम-शक्ति नामक इस विशिष्ट माल में श्रम देने का और इसलिये मूल्य पैदा करने का एक विचित्र उपयोग-मूल्य होता है, मालों के उत्पादन के सामान्य नियम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। इसलिये, यदि पैदावार में महब मजदूरी की शकल में पेशगी दिये गये मूल्यों के जोड़ का ही पुनरुत्पादन नहीं होता, बल्कि उसमें अतिरिक्त मूल्य भी जुड़ जाता है, तो इसका कारण यह नहीं है कि बेचने वाले के साथ घोला हुमा है, क्योंकि उसे तो वास्तव में अपने माल का मूल्य मिल जाता है, इसका कारण तो केवल यह है कि खरीदार ने इस माल का उपयोग किया है। विनिमय के नियम के अनुसार, एक हाथ से दूसरे हाथ जाने वाले मालों में केवल विनिमय-मूल्यों को समानता मावश्यक होती है। विनिमय का नियम शुरू से ही उनके उपयोग- मूल्यों में असमानता को पूर्वाधार मान लेता है, और इस नियम का इन मालों के उपभोग से कोई सम्बंध नहीं होता, क्योंकि वह तो उस बात तक प्रारम्भ नहीं होता, जब तक कि यह लेन-देन पूरा नहीं हो जाता। इसलिये, बिल्कुल शुरू-शुरू में मुद्रा का पूंजी में जो रूपान्तरण होता है, वह पूरी तरह मालों के उत्पादन के पार्षिक नियमों तथा उनसे व्युत्पन्न सम्पति के अधिकार के अनुसार होता है। फिर भी उसके निम्नलिखित परिणाम होते हैं: १) पैदावार पर मजदूर का नहीं, पूंजीपति का अधिकार होता है। २) इस पैदावार के मूल्य में पेशगी लगायी गयी पूंजी के मूल्य के अलावा कुछ अतिरिक्त मूल्य भी शामिल होता है। इस प्रतिरिक्त मूल्य के उत्पादन में मजदूर का श्रम खर्च होता है, मगर पूंजीपति का कुछ भी खर्च नहीं होता, और फिर भी यह पैदावार पूंजीपति की विधि- संगत सम्पत्ति बन जाती है। ३) मखदूर के पास उसकी बम-शक्ति बनी रहती है, और यदि उसे बरीवार मिल जाये, तो वह उसे फिर बेच सकता है। साधारण पुनरुत्पादन इस पहली क्रिया को एक नियतकालिक पुनरावृत्ति मात्र होता है। उसके द्वारा मुद्रा हर बार पूंजी में रूपान्तरित कर दी जाती है। इससे सामान्य नियम का प्रतिक्रमण नहीं होता ; इसके विपरीत, उसे निरन्तर कार्य करने का अवसर मिल जाता है। "उत्तरोत्तर होने वाले अनेक विनिमय-कार्यों ने केवल अन्तिम को प्रथम विनिमय-कार्य का प्रतिनिधि बना दिया है" (Sismondi, “Nouveaux Principes, etc.", qo you) फिर भी हम यह देख चुके हैं कि जहां तक कि इस पहली क्रिया को एक अलग-अलग पिया समझा जाता है, वहां तक साधारण पुनरुत्पादन उसपर एक सर्वधा उल्ले स्वरूप की छाप डाल देने के लिये पर्याप्त सिद्ध होता है। "राष्ट्रीय माय को जो लोग पापस में बांटते हैं, उनमें से कुछ को (मजदूरों को) हर वर्ष नया श्रम करके इस पैदावार पर अधिकार प्राप्त करना पड़ता है। दूसरों ने (पूंजीपतियों ने) शुरू में कुछ कार्य करके पहले से ही इस पैदावार पर स्थायी अधिकार प्राप्त कर लिया है" (Sismondi, उप० पु०, पृ. ११०, १११)। यह बात निश्चय ही महत्त्वपूर्ण है कि ही एकमात्र ऐसा नहीं है। जहां ज्येष्ठाधिकार का सिद्धान्त बड़े-बड़े चमत्कारपूर्ण कृत्य कर गलता है। पनि सम्पारण पुनरुत्पादन के स्थान पर विस्तारित पैमाने का पुनवत्पादन होने लगता संचय होने लगता है, तो उससे भी स्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता। पहले में पूंजीपति सारा धमका . 42-45