पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/६९१

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६८८ पूंजीवादी उत्पादन . तमाम शाखामों की प्रासत संरचनाओं का पोसत निकालने पर हमें यह मालूम हो जाता है कि किसी देश की कुल सामाजिक पूंजी की संरचना क्या है और मागे के अन्वेषण में हम अन्त में जाकर केवल इसी संरचना पर विचार करेंगे। पूंजी की वृद्धि के साथ-साथ उसके पस्थिर अंश में-या मम-शक्ति पर खर्च किये गये भाग में भी वृद्धि होती है। जो अतिरिक्त मूल्य प्रतिरिक्त पूंजी में बदल दिया गया है, उसके एक भाग को सबा अनिवार्य रूप से अस्थिर पूंजी में, या अतिरिक्त भम-कोष में, पुनः पान्तरित करना होता है। यदि हम यह मान लें कि अन्य बातों के ज्यों की त्यों रहते हुए पूंजी की संरचना भी ज्यों की त्यों रहती है (अर्थात् उत्पादन के साधनों की एक खास मात्रा को गतिमान बनाने के लिये श्रम-शक्ति की सदा एक सी राशि की पावश्यकता होती है), तब यह स्पष्ट है कि मन की मांग और मजदूरों के जीवन-निर्वाह-कोष की मांग उसी अनुपात में बढ़ती जायेगी, जिस अनुपात में पूंजी बढ़ती है, और जिस तेजी से पूंजी बढ़ती है, उसी तेजी से वह भी बढ़ती जायेगी। चूंकि पूंजी हर साल कुछ अतिरिक्त मूल्य पैदा करती है, जिसका एक भाग हर साल मूल पूंजी में जुड़ जाता है। चूंकि कार्यरत पूंजी का परिमाण बढ़ने के साथ- साप खुद इस वृद्धि की मात्रा में भी हर साल वृद्धि होती जाती है और, अन्त में, चूंकि पनी बनने के किसी विशेष उत्साह से प्रेरित होकर, जैसे नयी मण्डियों के जुलने पर या नव-विकसित सामाजिक प्रावश्यकताओं के फलस्वरूप पूंजी लगाने के नये क्षेत्र तैयार हो जाने पर, कमी- कमी केवल प्रतिरिक्त मूल्य या अतिरिक्त पैदावार के पूंजी तथा प्राय के बीच विभाजन के अनुपात में परिवर्तन करके ही यकायक संचय के पैमाने का विस्तार कर दिया जाता है, इसलिये यह मुमकिन है कि संचय होने वाली पूंजी की प्रावश्यकताएं श्रम-शक्ति की या मजदूरों की संख्या की वृद्धि से मागे निकल जायें, मजदूरों की मांग पूर्ति से ज्यादा हो जाये और इसलिये मजदूरी चढ़ जाये। बल्कि असल में तो यह होना अनिवार्य है, बशर्ते कि ऊपर हमने जिन बातों को मान लिया था, वे ज्यों की त्यों रहें। कारण कि हर वर्ष चूंकि पिछले वर्ष की अपेक्षा अधिक मजदूर नौकर रखे जाते हैं, इसलिये देर या सबेर एक ऐसी अवस्था का पाना अनिवार्य है, जब संचय की पावश्यकताएं श्रम की प्रचलित पूर्ति से पागे निकलना प्रारम्भ करती है और इसलिये जब मजदूरी ऊपर चढ़ जाती है। इस बात को लेकर इंगलैग में पन्द्रहवीं सदी में बराबर और प्रकारहवीं सदी के पहले पचास वर्षों में बड़ी चीज-पुकार हुई थी। मजदूरी पर काम करने वाला वर्ग किन न्यूनाधिक अनुकूल परिस्थितियों में अपना भरण-पोषण तवा पुनरुत्पादन करता है, इससे पूंजीवादी उत्पादन के मौलिक स्वरूप में कोई फर्क नहीं पाता। जिस तरह साधारण पुनरुत्पादन स्वयं पूंजी के सम्बंध का-प्रर्थात् एक मोर पूंजीपतियों और दूसरी मोर मजदूरी पर काम करने वालों के सम्बंध का-मी लगातार पुनकत्वादन करता रहता है, उसी तरह उत्तरोत्तर बढ़ते हुए पैमाने का पुनरुत्पादन, प्रयवा संचय, पूंजी के सम्बंध का उत्तरोत्तर बढ़ते हुए पैमाने पर पुनरुत्पादन करता है, और एक छोर पर अधिकाधिक बड़ी संख्या में या अधिकाधिक बड़े प्रकार के पूंजीपति पैदा होते जाते हैं और दूसरे छोर पर मजदूरों की संख्या बढ़ती जाती है। ऐसी मम-शक्ति का पुनरुत्पादन, जिसके लिये अनिवार्य हो कि वह पूंजी के पात्म-विस्तार के हित में उस पूंजी के साथ हर बार अपना पुनः समावेशन करती जाये, जिसके लिये पूंजी से मुक्ति पाना सम्भव न हो और जिसकी पासता पर केवल इस बात का पावरण पड़ा हो कि उसको बहुत से अलग-अलग पूंजीपतियों के हाथ अपने को बेचना पड़ता है,-ऐसी मम-पाक्ति का पुनरुत्पावन, वास्तव में, स्वयं पूंजी . ,