पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/७३९

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७३६ पूंजीवादी उत्पादन . का काम करते हैं, इसके बहुत पहले घर का सारा भौतिक सुखपला जाता है। कपड़े और चन की कमी भोजन की कमी से भी ज्यादा भयानक रूप धारण कर लेती है। मौसम की निष्ठुरतामों से बचने के बहुत कम सापन रह जाते हैं। रहने का स्थान इतना कम हो जाता है कि भीड़ के कारण बीमारियां पैदा होने या बढ़ने लगती है। घर का सारा फर्नीचर और बर्तन- भाडे चले जाते है, और यहां तक कि सफाई रखना भी बहुत महंगा या बहुत मुश्किल काम प्रतीत होने लगता है,-और यदि इस हालत पर पहुंच जाने के बाद भी प्रात्म-सम्मान सकाई रखने की कोशिश करता है, तो ऐसी हर कोशिश के लिये पेट और भी काटा जाता है। घर सब से कम किराये वाले मुहल्लों में लिया जाता है। ये वे मुहल्ले होते हैं, जहां सफाई सम्बन्धी निरीक्षणों का सब से कम असर हुमा है, जहां गन्दे पानी की निकासी का सब से कम इन्तजाम है, जहां सबसे कम सफ़ाई होती है, यहाँ सार्वजनिक अनुवास को रोकने का सब से कम प्रबंध है, जहां पानी का सबसे कम था सब से खराब इन्तजाम है, और यदि शहर का मामला है, तो वहां सब से कम रोशनी और हवा मयस्सर होती है। जब परीबी इस हर तक पहुंच जाती है कि जाने की तंगी होने लगती है, तब स्वास्थ्य के लिये इन तमाम खतरों का पैदा हो जाना लगभग अनिवार्य हो जाता है। और नहाँ ये सारे खतरे मिलकर जिन्दगी के लिये एक बहुत भयानक बीच बन जाते हैं, वहां अकेली भोजन की कमी ही अत्यन्त चिन्ताजनक बात होती है ये बातें ऐसी हैं, जिनके बारे में सोचकर बहुत दुःख होता है, -खास तौर पर इसलिये कि यहां जिस गरीबी की पर्चा है, वह काहिलों की परीबी नहीं है, विसका अपना मौचित्य होता है। यह तो हर जगह मेहनत करने वालों की परीबी है। सब पूछिये, तो जहां तक मकानों के अन्दर बैठकर काम करने वालों का सम्बंध है, सबसे कम भोजन प्रायः उन लोगों को मिलता है, जिनको सब से ज्यादा देर तक काम करना पड़ता है। जाहिर है कि इस तरह के काम को केवल एक सीमित पर्व में ही प्रात्म-निर्भर व्यक्तियों का काम समझा जा सकता है और यह नाम मात्र की प्रात्म-निर्भरता प्रायः मुहताजी के संक्षिप्त या लम्बे मार्ग का ही काम करती है। मरवर्ग के सबसे ज्यादा मेहनती हिस्सों की मुखमरी और पूंजीवावी संचय पर माधारित, बनी लोगों के प्रसंस्कृत अववा सुसंस्कृत अपव्ययी उपभोग के बीच बो अन्तरंग सम्बंध होता है, वह हमें केवल उसी समय दिखाई देता है, बब हमें पार्षिक नियमों का मान होता है। "गरीबों के रहने की व्यवस्था" की बात दूसरी है। जिसमें पूर्वाग्रह नहीं है, ऐसा प्रत्येक पर्यवेक्षक मानता है कि उत्पादन के साधनों का जितना प्रषिक केन्द्रीयकरण होता है, मजदूरों की उतनी ही बड़ी संख्या को पोड़े से स्थान के भीतर भर दिया जाता है और पूंजीवादी संचय जितनी तेजी से होता है, मेहनत करने वालों के रहने के मकान उतने ही खराब होते हैं। धन की वृद्धि होने के साथ-साथ जब शहरों का "सुपार" (Improvements) किया जाता है-बगे मकानों को गिरा दिया जाता है, बैंकों, गोदामों मावि के लिये महल बड़े किये जाते है, व्यावसायिक यातायात के लिये, पनियों की बड़ी-बड़ी गाड़ियों और दाम-नाड़ियों मादि के लिये सड़ पौड़ी की जाती है, -तब परीबों को उनके पुरे घरों से निकालकर पीर भी बुरे तवा और भी अधिक भीड़ से भरे दिनों में पिने के लिये मजबूर कर दिया जाता है। दूसरी पोर, हर कोई जानता है कि मकानों का किराया उनकी प्राई के प्रतिलोम अनुपात ..c "1 1 उप० पु०, पृ० १४, १५।