पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/८६

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माल ८३ 1 - यहाँ हम समीकरण को उस तरह उलट नहीं सकते, जिस तरह हम २० गत कपा-१ कोट के समीकरण को उलट सकते हैं। यदि हम उसे उलटते हैं, तो उसका स्वरूप बदल जाता है पौर वह मूल्य के विस्तारित रूप से मूल्य का सामान्य रूप बनकर रह जाता है। अन्त में, आप 'ग' में चूंकि एक माल को छोड़कर बाकी सब मालों का सम-मूल्य रूप से अपवर्जन हो जाता है, इसीलिये और इसी हब तक उससे मालों की दुनिया को मूल्य का एक सामान्य एवं सामाजिक सापेक्ष रूप मिल जाता है। प्रतएव एक अकेला माल, यानी कपड़ा, इसीलिये और इसी हब तक अन्य हरेक माल के साथ प्रत्यक्ष विनिमेयता का गुण प्राप्त कर लेता है कि अन्य हरेक माल इस गुण से वंचित कर दिया जाता है।' दूसरी मोर, जो माल सार्वत्रिक सम-मूल्य का काम करता है, उसका सापेक्ष मूल्य-रूप से अपवर्जन हो जाता है। यदि कपड़ा या सार्वत्रिक सम-मूल्य का काम करने वाला कोई और माल इसके साथ-साथ मूल्य के सापेक्ष रूप में भी हिस्सा बंटाने लगे, तो उसे जुद अपना सम- मूल्य बनना पड़ेगा। तब समीकरण यह हो जायेगा कि २० गज कपड़ा २० गड कपड़ा। यह पुनरुक्ति न तो मूल्य को और न मूल्य के परिमाण को व्यक्त करती है। सार्वत्रिक सम-मूल्य के सापेक्ष मूल्य को व्यक्त करने के लिये हमें आप 'ग' को उलट देना पड़ेगा। इस सम- मूल्य मूल्य का कोई ऐसा सापेक्ष रूप नहीं है, जो दूसरे मालों का भी हो, मगर तुलनात्मक ढंग से उसका मूल्य अन्य मालों के एक अन्तहीन क्रम के रूप में व्यक्त होता है। इस प्रकार प्रकट होता है कि सापेक्ष मूल्य का विस्तारित रूप-अथवा 'ख' रूप-ही सम-मूल्य माल के सापेन मूल्य का विशिष्ट रूप है। के 1 यह बात कदापि स्वतःस्पष्ट नहीं है कि प्रत्यक्ष और व्यापक विनिमेयता का यह गुण गोया एक ध्रुवीय गुण है, और वह अपने उल्टे ध्रुव से, यानी प्रत्यक्ष विनिमेयता के प्रभाव से , उसी अंतरंग ढंग से जुड़ा हुआ है, जिस अंतरंग ढंग से चुम्बक का धनात्मक ध्रुव उसके ऋणात्मक ध्रुव से जुड़ा होता है। इसलिए जिस तरह यह कल्पना की जा सकती है कि केथोलिक मत मानने वाले सभी लोगों का एक साथ पोप बन जाना सम्भव है, उसी प्रकार यह कल्पना भी की जा सकती है कि तमाम माल एक साथ यह गुण प्राप्त कर सकते हैं। उस निम्न-पूंजीवादी की नजरों में, जिसके लिये मालों का उत्पादन मानव-स्वतंत्रता और व्यक्तिगत स्वाधीनता की चरमावस्था है, यह, जाहिर है , अत्यन्त वांछनीय बात होगी, यदि मालों का सीधा विनिमय न हो सकने से पैदा होने वाली यह कठिनाई दूर हो जाये। घूधों का समाजवाद इस कूपमण्डूक कल्पना-लोक का ही विस्तृत रूप है। जैसा कि मैंने अन्यत्र प्रमाणित किया है, घूधों का यह समाजवाद. तो ऐसा है, जिसमें मौलिकता का गुण भी नहीं है । भ्रूधों से बहुत पहले , बे और अन्य लोग यह काम अधिक सफलतापूर्वक कर चुके हैं। लेकिन इस सबके बावजूद कुछ हल्कों में आज भी इस तरह का ज्ञान "विज्ञान" के नाम से सराहा जाता है । "विज्ञान" शब्द का जैसा दुरुपयोग भ्रूषों-विचारधारा के अनुयायियों ने किया है, वैसा और किसीने नहीं किया है, क्योंकि "wo Begriffe fehlen, Da stellt zur rechten Zeit ein Wort sich ein." ("जब विचारों से काम नहीं चलता, तब सही मौके पर एक शब्द काम कर जाता है। गेटे कृत 'फ्रोस्ट' काव्य नाटक से उद्धृत।) . . 6°