पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/९१

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पूंजीवादी उत्पादन इसरी पोर, वह उस एक उत्पादक की नाना प्रकार की आवश्यकताओं को केवल उसी हर तक पूरा कर सकता है, जिस हब तक कि निजी उपयोगी श्रम के विभिन्न प्रकारों की पारस्परिक विनिमेयता एक स्थापित सामाजिक सत्य बन गयी है और इसलिए जिस हद तक कि हर उत्पादक का निजी उपयोगी भम बाकी सब उत्पादकों के मन के बराबर माना जाता है। भम के अत्यन्त भिन्न मों का समानीकरण केवल इसी का फल हो सकता है कि इन रूपों को उनकी असमानतामों से अलग कर दिया जाये अथवा उनको उनके सामान्य स्वरूप में, -अर्थात् मानव-श्रम-शक्ति के व्यय में, या अमूर्त मानव-श्रम में,-परिणत कर दिया जाये। जब व्यक्ति के श्रम का बोहरा सामाजिक स्वरूप उसके. मस्तिष्क में झलकता है, तो वह उसे केवल उन शकलों में दिखाई देता है, जो रोजमर्रा के व्यवहार में श्रम से उत्पन्न वस्तुओं के विनिमय ने उस श्रम को दे दी है। इस तरह, उसके अपने श्रम में सामाजिक दृष्टि से उपयोगी होने का नो गुण मौजूद है, वह इस शर्त का रूप धारण कर लेता है कि श्रम से उत्पन्न वस्तु को न केवल उपयोगी, बल्कि दूसरों के लिए उपयोगी होना चाहिए, और उसके विशिष्ट श्रम में श्रम के अन्य सब विशिष्ट प्रकारों के समान होने का जो सामाजिक गुण विद्यमान रहता है, वह यह रूप धारण कर लेता है कि भम से पैदा होने वाली, शारीरिक रूप से भिन्न-भिन्न प्रकार की तमाम वस्तुओं में एक गुण समान रूप से मौजूद होता है, और बह यह कि उन सब में मूल्य होता है। इसलिए, जब हम अपने श्रम से उत्पन्न वस्तुओं का मूल्यों के रूप में एक दूसरे के साथ सम्बंध स्थापित करते हैं, तब हम यह इसलिए नहीं करते हैं कि हम इन वस्तुओं को सजातीय मानव-श्रम का भौतिक प्रावरण समझते हैं। बात इसकी ठीक उल्टी होती है। जब कभी हम विनिमय द्वारा अपने मम से उत्पन्न भिन्न-भिन्न वस्तुओं का मूल्यों के रूप में समीकरण करते हैं, तब हम उसी कार्य द्वारा उन वस्तुओं पर खर्च किये गये श्रम के विभिन्न प्रकारों का भी मानव-धमकेप समीकरण कर गलते हैं। हम बाने ही ऐसा करते हैं, किन्तु फिर भी करते पर हैं। प्रतएव, मूल्य अपने पर कोई ऐसा लेबिल लगाकर नहीं घूमता, जिसपर लिखा हो कि वह कौन है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि यह मूल्य ही है, जो मन से पैरा होने वाली प्रत्येक वस्तु को एक सामाजिक चित्रामर बना देता है। बाद को हम इस चित्रलिपि को पढ़ने की कोशिश करते हैं और खुद अपनी सामाजिक पैदावार का रहस्य समलने का प्रयत्न करते है, क्योंकि जिस प्रकार भाषा एक सामाजिक पैराबार है, उसी प्रकार किसी उपयोगी वस्तु पर मूल्य की छाप अंकित कर देना भी एक सामाजिक पैदावार है। हाल का यह नया बैज्ञानिक प्राविष्कार कि मन से उत्पन्न तमाम बस्तुएं, यहां तक ये मूल्य है, वहां तक अपने-अपने उत्पादन में खर्च किये गये मानव-श्रम की भौतिक अभिव्यंजना मात्र होती है, सचमुच मनुष्य-वाति के विकास के इतिहास में एक नये युग के प्रारम्भ का घोतक है। लेकिन - इसलिए, जहां गालियानी यह कहता है कि मूल्य व्यक्तियों के बीच पाया जाने वाला एक सम्बंध है- "La Ricchezzae una ragione tra due persone,"- वहां उसको यह और जोड़ देना चाहिए था कि वह व्यक्तियों के बीच पाया जाने वाला एक ऐसा सम्बंध है, जो वस्तुमों के बीच पाये जाने वाले सम्बंध के रूप में व्यक्त होता है। (Galiani: "Della Mone- ta", yoo 789, Custodi i "Scrittori Classici Italiani di Economia Politica" eine RI. Parte Moderna, Milano, 1803.)