पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/११९

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193 पूंजी के रूपांतरण और उनके परिपय . , होती है-उत्पादन पर रोक , संकटों आदि से जनित अनियमित व्यवधान पूर्ण हानि होते हैं- उत्पाद के निर्माण में शामिल हुए बिना मूल्य वृद्धि करता है। पूंजी का यह भाग उत्पाद में जिन कुल मृत्य की वृद्धि करता है, वह उसके प्रोसत टिकाऊपन द्वारा निर्धारित होता है, जब वह अपने कार्य करता होता है और जब नहीं भी करता होता है, वह अपना मूल्य गंयाता रहता है, क्योंकि उसके उपयोग मूल्य का लोप होता है। अंत में पूंजो के स्थिर भाग का मूल्य , जो श्रम प्रक्रिया के विच्छिन्न होने पर भी उत्पादक प्रक्रिया में बना रहता है, उत्पादक प्रक्रिया के परिणाम में फिर प्रकट होता है। स्वयं श्रम ने उत्पादन साधनों को यहां ऐसी परिस्थितियों में डाल दिया है, जिनके अंतर्गत वे मृद ही कुछ नैसर्गिक प्रक्रियायों से गुजरते हैं, जिसका नतीजा कोई निश्चित उपयोगी परिणाम अथवा उनके उपयोग मूल्य के रूप में परिवर्तन होता है। जिस सीमा तक श्रम दरअसल उत्पादन साधनों का उपयुक्त ढंग से उपभोग करता है, वह सदैव उनका मूल्य उत्पाद में अंतरित करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह परिणाम उत्पन्न करने के लिए श्रम को लगातार अपने विषय को श्रम उपकरणों द्वारा प्रभावित करना होता है, अथवा उत्पादन साधन जुटाकर उसे ऐसी परिस्थितियों में केवल पहली प्रेरणा देनी होती है, जिनके अंतर्गत श्रम की और सहायता के बिना नैसर्गिक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप उनमें स्वतः ही उद्दिष्ट परिवर्तन संपन्न हो जाता है। श्रम काल की तुलना में उत्पादन काल के प्राधिक्य का कारण जो भी हो- चाहे यह परिस्थिति हो कि उत्पादन साधन केवल अंतर्हित उत्पादक पूंजी होते हैं और इसलिए वास्तविक उत्पादक प्रक्रिया के शुरू होने से पहले की मंजिल में होते हैं अथवा यह कि उत्पादन प्रप्रिया में उसके विरामों द्वारा उनकी स्वयं अपनी कार्यशीलता में व्यवधान पड़ता है, अयवा अंत में यह कि उत्पादन प्रक्रिया स्वयं इसे आवश्यक बना देती है कि श्रम प्रक्रिया में व्यवधान पढ़ें- इनमें किसी भी स्थिति में उत्पादन साधन यों कार्य नहीं करते कि वे श्रम को प्रात्मसात कर लें। और यदि वे श्रम को प्रात्मसात नहीं करते, तो वे वेशी श्रम को भी प्रात्मसात नहीं करते। इसलिए उत्पादक पूंजी मूल्य का प्रसार तब तक नहीं होता, जब तक वह उत्पादन काल के उस खंड में बना रहता है, जो श्रम काल से आधिक्य में होता है , स्वप्रसार प्रक्रिया को चालू रखना इन विरामों से कितना ही अवियोज्य क्यों न हो। यह स्पष्ट है कि उत्पादन काल और श्रम काल जितना ही एक दूसरे पर फैले होते हैं, उतना ही किसी निश्चित काल घंट में, किसी निश्चित उत्पादक पूंजी का स्वप्रसार, और उसकी उत्पादिता उतना ही अधिक होती है। इसीलिए पूंजीवादी उत्पादन की यह प्रवृत्ति होती है कि श्रम काल से उत्पादन काल के प्राधिक्य को यथासंभव कम करे। किंतु यद्यपि किसी पूंजी का उत्पादन काल उसके श्रम काल से भिन्न हो सकता है, तथापि वह सदा उस श्रम काल को समाविष्ट करता है, और यह प्राधिक्य स्वयं उत्पादन प्रक्रिया की एक शर्त होता है। इसलिए उत्पादन काल सदैव वह काल होता है, जिसमें कोई पूंजी उपयोग मूल्य निर्मित करती और विस्तार पाती है, अतः उत्पादक पूंजी की हैसियत से कार्य करती है, यद्यपि उसमें वह समय भी शामिल होता है, जिसमें वह या तो अंतर्हित रहती है अथवा अपने मूल्य का प्रसार किये विना उत्पादन करती है। परिचलन क्षेत्र में पूंजी माल पूंजी तथा द्रव्य पूंजी की हैसियत में विद्यमान होती है। उसके परिचलन की दोनों प्रक्रियाएं उसका माल रूप से द्रव्य रूप में और द्रव्य रूप गे माल रूप में रूपांतरण हैं। इस बात से कि यहां माल का द्रव्य में रूपांतरण साथ ही माल में निहित वेगी मूल्य का सिद्धिकरण भी है और द्रव्य का माल में रूपांतरण साथ ही पूंजी मूल्य का उसके ,