पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/१२८

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परिचलन की लागत १२७ रूप में पूंजी केवल लेखा मुद्रा के रूप में मुख्यत: मालों के उत्पादक के , मालों के पूंजीवादी उत्पादक के मन में ही अस्तित्वमान होती है। यह गति लेखाकरण द्वारा नियत तथा नियन्त्रित की जाती है, जिसमें कीमतों का निर्धारण अथवा मालों की कीमतों का आकलन शामिल होता है। उत्पादन की गति, विशेपत: वेशी मूल्य के उत्पादन की गति - जिसमें , माल मूल्य के निधान की तरह , चीज़ों के नामों की तरह ही सामने आते हैं, जिनका मूल्यों की हैसियत से अधिकल्पित अस्तित्व लेखा मुद्रा के रूप में मूर्त होता है,- इस प्रकार प्रतीकरूपेण कल्पना में प्रतिविम्बित होती है। जब तक मालों का वैयक्तिक उत्पादक हिसाब-किताव अपने मन में ही रखता है (उदाहरण के लिए, किसान ; पूंजीवादी कृषि के अभ्युदय से पहले खाता रखनेवाले असामी-काश्तकार का जन्म नहीं हुअा था) अथवा अपने ख़र्चों, प्राप्तियों, अदायगी की तारीखों, आदि का हिसाब वह अपने उत्पादन काल के वाहर , केवल प्रासंगिक रूप में रखता है, यह एकदम स्पष्ट है कि यह कार्य , और उसके द्वारा उपभुवत श्रम के उपकरण, जैसे काग़ज़ आदि, श्रम काल और उपकरणों का अतिरिक्त उपभोग प्रकट करते हैं, जो आवश्यक तो हैं, किन्तु जो उत्पादक उपभोग के लिए उपलब्ध समय और उन श्रम उपकरणों में भी कटौती प्रकट करते हैं , जो उत्पादन की वास्तविक प्रक्रिया में कार्य करते हैं, उत्पाद और मूल्य के सृजन में शामिल होते हैं । " इस कार्य के स्वरूप में परिवर्तन नहीं होता- न तो स्वयं पूंजीवादी उत्पादक के हाथों में केन्द्रित होने से उसके द्वारा ग्रहण किये आयाम से और न इस बात से कि बहुत से छोटे माल उत्पादकों के कार्य की हैसियत से प्रकट होने के बदले वह एक पूंजीपति के कार्य की हैसियत से , बड़े पैमाने के उत्पादन की प्रक्रिया के भीतर कार्य की हैसियत से प्रकट होता है : न उन उत्पादक कार्यों से , जिनका वह उपांग था , अलग होने पर और म ही उसके विशेष अभिकर्तायों के, जिन्हें वह अनन्य रूप में सौंपा गया है, स्वतंत्र कार्य में बदल जाने से उसके स्वरूप में परिवर्तन आता है। श्रम के विभाजन से और स्वतंत्र हो जाने से कोई कार्य उत्पाद और मूल्य का निर्माता नहीं हो जाता , वशर्ते कि वह आन्तरिक रूप में पहले से , अतः स्वतंत्र होने के पहले से ऐसा न रहा हो। अगर पूंजीपति अपनी पूंजी नये सिरे से लगाता है, तो उसका एक हिस्सा उसे भाड़े पर लेखापाल , आदि रखने के लिए और लेखाकरण के साधनों पर लगाना होगा। अगर उसकी पूंजी पहले से कार्यशील हो, स्वयं के निरन्तर पुनरुत्पादन की प्रक्रिया में संलग्न हो, तो उसे लगातार अपने उत्पाद के एक हिस्से को लेखापाल , वलर्क, वगैरह के रूप में उस भाग को द्रव्य में बदलकर पुनःपरिवर्तित करना होगा। उसकी पूंजी का वह भाग उत्पादन - - . 12 मध्यकाल में कृषि का हिसाव रखने की प्रथा केवल मठों में देखने में आती है। लेकिन हम देख चुके हैं (Buch I, p. 343 [हिन्दी संस्करण : पृष्ठ ४०४ । - सं०]) कि आदिम भारतीय समुदायों के युग में भी कृषि का हिसाब रखने ही के लिए पटवारी होता था। वहां हिसाव का काम एक सामुदायिक कर्मचारी का स्वतंत्र और अनन्य कार्य वना दिया गया है। श्रम के इस विभाजन से समय, श्रम और धन की बचत होती है, किन्तु उत्पादन क्षेत्र में उत्पादन और लेखाकरण वैसे ही दो भिन्न चीजें रहते हैं, जैसे जहाज़ पर लदा माल और लदाई का विल । पटवारी के रूप में समुदाय की श्रम क्ति का एक भाग उत्पादन से खींच लिया जाता है, और उसके कार्य की लागत की पूर्ति उसके अपने श्रम से नहीं, वरन सामुदायिक उत्पाद में कटौती से की जाती है। भारतीय समुदाय के पटवारी के बारे में जो वात सही है, वह पंजीपति के लेखापाल के लिए भी mutatis mutandis [ यथापरिवर्तनसहित] सही है। ( पाण्डुलिपि २ से।)