पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/१३३

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१३२ पूंजी के रूपांतरण और उनके परिपथ - 1 मूल्य को, जो एक उपयोगिता है, बनाये रखना है, और जो उत्पाद को, स्वयं उपयोग मूल्य को बनाये रखे विना अन्य किसी प्रकार से सुरक्षित नहीं रखी जा सकती। यहां उपयोग मूल्य न तो चढ़ाया जाता है, न बढ़ाया ; इसके विपरीत वह घटता है। किन्तु उसका ह्रास नियन्त्रित होता है और वह बना रहता है। न माल में निविष्ट पेशगी मूल्य ही यहां बढ़ता है, किन्तु नया - सजीव और मूर्त श्रम उसमें जुड़ जाता है। अव हमें आगे इसका अनुसंधान करना है कि वह लागत किस सीमा तक सामान्यतः माल उत्पादन के विशेष स्वरूप से, और साधारण तथा निरपेक्ष रूप के माल उत्पादन से , यानी पूंजी- वादी माल उत्पादन से उत्पन्न होती है; और दूसरी ओर किस सीमा तक वह सभी सामाजिक उत्पादन के लिए सामान्य है और पूंजीवादी उत्पादन में केवल एक विशेष प्राकृति , प्रतीति का विशेप रूप धारण करती है। ऐडम स्मिथ यह शानदार ख़याल रखते थे कि पूर्ति का निर्माण ऐसी परिघटना है , जो पूंजीवादी उत्पादन की ही विशिष्टता है । 15 इधर हाल के अर्थशास्त्रियों, जैसे लैलोर ने इसके विपरीत इस पर जोर दिया है कि पूंजीवादी उत्पादन के विकास के साथ उसका ह्रास होता है। * सीसमांडी तो यहां तक मानते हैं कि यह पूंजीवादी उत्पादन की एक कमी है। * वास्तविकता यह है कि पूर्ति तीन रूपों में विद्यमान होती है : उत्पादक पूंजी के रूप में, वैयक्तिक उपभोग के लिए निधि के रूप में , और माल पूर्ति अथवा माल पूंजी के रूप में। किसी एक रूप में पूर्ति बढ़ती है , तो दूसरे रूप में वह अपेक्षाकृत घटती है, यद्यपि तीनों रूपों में एकसाथ उसके परिमाण की निरपेक्ष वृद्धि हो सकती है। यह स्वतःस्पष्ट है कि जहां उत्पादन उत्पादक की आवश्यकताओं की प्रत्यक्ष पुष्टि के लिए किया जाता है और विनिमय अथवा विक्रय के लिए अल्प सीमा तक ही किया जाता है, इसलिए जहां सामाजिक उत्पाद माल रूप धारण ही नहीं करता अथवा अल्पांश में ही करता है, वहां मालों के रूप में पूर्ति अथवा माल पूर्ति धन का अल्प अथवा तुच्छ भाग ही बन पाती है। किन्तु यहां उपभोग निधि , विशेषतः वास्तविक निर्वाह साधन निधि , अपेक्षाकृत बड़ी है। इसके लिए पुराने ढंग की कृपक अर्थव्यवस्था पर दृष्टिपात करना ही पर्याप्त होगा। वहां उत्पाद का भारी बहुलांश माल पूर्ति वने विना उत्पादन साधनों अथवा निर्वाह साधनों की पूर्तियों में प्रत्यक्ष परिवर्तित हो जाता है और इसका कारण यही होता है कि वह अपने मालिक के हाथ में वना रहता है। वह माल पूर्ति का रूप धारण नहीं करता और इसलिए ऐडम स्मिथ घोपित करते हैं कि उत्पादन की इस पद्धति पर आधारित समाजों में पूर्ति होती ही नहीं। वह पूर्ति के रूप को स्वयं पूर्ति से उलझा देते हैं और विश्वास करते हैं कि अब तक समाज रोज़ कुआं खोदकर पानी पीता आया है अथवा भावी का भरोसा करता है । 1 यह एक भोली भ्रान्ति है। 15 खंड २, भूमिका । [A. Smith, An Inquiry into the Nature and Causes of the Wealth of Nations. A new edition in four volumes, London, 1843, Vol. II, pp. 249-52.. -सं०]

  • J. Lalor, Money and Morals: a Book for the Times, London, 1852, pp.

43,44. - सं०

    • J. G. L. Sismonde de Sismondi, Etudes sur l'économie politique, Tome 1.

Bruxelles, 1837, p. 49, etc. - 10 ऐडम स्मिथ की इस भ्रांत कल्पना के विपरीत कि उत्पाद के माल में परिवर्तित होने