पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/१३४

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परिचलन की लागत १३३ 1 उत्पादक पूंजी के रूप में पूर्ति उत्पादन साधनों की शकल में विद्यमान रहती है, जो पहले से ही उत्पादन प्रक्रिया अथवा कम से कम उत्पादक के हाथ में होते हैं, अतः अंतर्हित रूप में पहले ही उत्पादन प्रक्रिया में होते हैं। हम पहले देख चुके हैं कि श्रम की उत्पादिता वढ़ने और इसलिए पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के विकास - जो अन्य सभी पूर्ववर्ती उत्पादन पद्धतियों की अपेक्षा श्रम की सामाजिक उत्पादक शक्ति को अधिक विकसित करती है- के साथ उत्पादन साधनों की राशि में (इमारतों, मशीनों, आदि में) सतत वृद्धि होती है, जो श्रम उपकरणों के रूप में सदा के लिए उत्पादन प्रक्रिया में समाविष्ट हो जाते हैं और न्यूनाधिक काल के लिए सतत प्रावृत्ति के साथ अपने कार्य सम्पन्न करते हैं। हमने यह भी देखा था कि यह वृद्धि साथ ही श्रम की सामाजिक उत्पादक शक्ति के विकास का पूर्वाधार और परिणाम भी है। इस रूप में धन की निरपेक्ष ही नहीं, सापेक्ष वृद्धि भी, सर्वोपरि पूंजीवादी उत्पादन पद्धति की विशेषता है (Buch I, Kap. XXIII, 2* से मिलाइये ) । स्थिर पूंजी के अस्तित्व के भौतिक रूपों, उत्पादन साधनों में केवल श्रम के उक्त उपकरण ही नहीं, वरन प्रक्रिया की विभिन्न मंज़िलों से गुजरती हुई श्रम की सामग्री और सहायक सामग्री भी आते हैं। उत्पादन के पैमाने के वि- स्तार के साथ और सहकारिता, श्रम विभाजन , मशीनों, आदि के द्वारा श्रम की उत्पादक शक्ति की वृद्धि के साथ पुनरुत्पादन की दैनिक प्रक्रिया में शामिल होनेवाले कच्चे माल , सहायक सामग्री , आदि का परिमाण भी बढ़ता है। ये तत्व उत्पादन स्थल पर तत्काल सुलभ होने चाहिए। अतः उत्पादक पूंजी के रूप में विद्यमान इस पूर्ति के परिमाण की निरपेक्ष वृद्धि होती है। इसके लिए कि यह प्रक्रिया जारी रहे - इसके अलावा कि इस पूर्ति का नवीकरण नित्य किया जा सकता है या केवल नियत अवधियों पर - उत्पादन स्थल पर तत्काल सुलभ जितने कच्चे माल, आदि की प्रति दिन अथवा प्रति सप्ताह खपत हो सकती है, उससे अधिक का संचय सदा रहना चाहिए। प्रक्रिया की निरंतरता के लिए यह जरूरी है कि उसकी शर्तों की विद्यमानता नित्य खरीदारी करने में संभव व्यवधानों से ख़तरे में न आये और न इस पर निर्भर करे कि उत्पाद की विक्री रोजाना होती है या हफ़्तेवार और इसलिए अपने उत्पादन तत्वों में अनियमित रूप से ही पुनःपरिवर्तित हो सकती है। पर यह स्पष्ट है कि उत्पादक पूंजी नितान्त भिन्न परिमाण और उपभोग पूर्ति के माल पूर्ति में बदलने से ही पूर्ति उत्पन्न होती है, यह रूप परिवर्तन उत्पादकों की अर्थव्यवस्था में अपनी आवश्यकताओं के लिए किये जानेवाले उत्पादन से माल उत्पादन में संक्रमण के समय अति विकट संकट उत्पन्न करता है। उदाहरण के लिए, हिन्दु- स्तान में अभी कल तक "खासकर अनाज की, जिसके लिए अच्छी फ़सल के वर्षों में बहुत कम प्राप्ति हो सकती है, जमाखोरी करने की प्रवृत्ति" देखने में आती थी। (Return. Bengal and Orissa Famine. H. of C., 1867, 1, pp. 230-31, No. 74.) That गृहयुद्ध के कारण कपास , पटसन, वगैरह की मांग के अचानक बढ़ जाने के कारण हिन्दुस्तान के बहुत से हिस्सों में धान की खेती में जवर्दस्त कमी आई, चावल की कीमत बढ़ गई और उत्पादकों के पास जमा पुराना चावल विक गया। इसके साथ १८६४-१८६६ के बाद प्रास्ट्रेलिया, मदागास्कार, आदि को चावल के अभूतपूर्व निर्यात को भी ध्यान में रखना चाहिए। यही १८६६ के अकाल की भीपणता का कारण था, जिससे अकेले उड़ीसा जिले में दस लाख grafiat în fra 75 (loc. cit., 174, 175, 213, 214 and III : Papers relating to the Farmine in Behar, pp. 32, 33, जहां इस पर जोर दिया गया है कि अकाल का एक कारण "पुराने भण्डारों का खाली हो जाना है")। (पाण्डुलिपि २ से।) 'हिन्दी संस्करण : अध्याय २५, २।-सं०