पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/१४४

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-१४३ भाग २ पूंजी का आवर्त अध्याय ७ आवर्त काल तथा आवर्त संख्या हम देख चुके हैं कि किसी नियत पूंजी का समग्र आवर्त काल उसके परिचलन काल तथा उसके उत्पादन काल के योग के वरावर होता है। यह एक निश्चित रूप में पूंजी मूल्य पेशगी दिये जाने के क्षण से लेकर उसी रूप में कार्यशील पूंजी मूल्य की वापसी तक का समय है। पूंजीवादी उत्पादन का अनिवार्य प्रेरक हेतु सदा पेशगी मूल्य द्वारा वेशी मूल्य का सृजन होता है, चाहे यह मूल्य अपने स्वतंत्र रूप में, अर्थात द्रव्य रूप में पेशगी दिया जाये या माल रूप में, जब उसका मूल्य रूप पेशगी दिये हुए माल की कीमत में केवल अधिकल्पित स्वतंत्रता रखता है। दोनों ही स्थितियों में अपनी वृत्तीय गति के दौरान यह पूंजी मूल्य अपने अस्तित्व के विभिन्न रूपों से होकर गुजरता है। अपने से उसकी एकरूपता पूंजीपतियों के बही-खातों में अथवा लेखा द्रव्य के रूप में स्थिर की जाती है। चाहे हम द्र...द्र' रूप लें, चाहे उ . . . उ रूप लें , निहितार्थ यही है कि १) पेशगी मूल्य पूंजी मूल्य का कार्य करता है, और वेशी मूल्य का सृजन कर चुका है.; २) अपनी, प्रक्रिया पूरी करने पर वह उसी रूप में लौट आया है, जिसमें उसने इसकी शुरूआत की थी। पेशगी मूल्य द्र का स्वप्रसार , और साथ ही इस रूप (द्रव्य रूप ) में पूंजी की वापसी. द्र....द्र' में स्पष्ट दिखाई देती है। किन्तु वही वात दूसरे रूप में भी होती है। कारण यह है कि उ का प्रारम्भ विन्दु उत्पादन तत्वों का दत्त मूल्यों के मालों का अस्तित्व है। इस मूल्य (मा' और द्र') का स्वप्रसार और मूल रूप में उसका प्रत्यावर्तन इस रूप में शामिल है, क्योंकि दूसरे उ में पेशगी मूल्य फिर वही उत्पादन तत्वों का रूप हो जाता है, जिसमें वह मूलतः पेशगी दिया गया था। हम पहले देख चुके हैं : “यदि उत्पादन का रूप पूंजीवादी है, तो पुनरुत्पादन का रूप भी वही होगा। जिस प्रकार पूंजीवादी उत्पादन में श्रम प्रक्रिया पूंजी के स्वविस्तार का एक साधन मात्र होती है, उसी प्रकार पूंजीवादी पुनरुत्पादन में वह पेशगी लगाये गये मूल्य का पूंजी के रूप में, अर्थात स्वयं अपना विस्तार करनेवाले मूल्य के रूप में पुनरुत्पादन का साधन मात्र alant" (Buch I, Kap. XXI, S. 588)*1 . .. 7 हिन्दी संस्करण : अध्याय २३, पृष्ठ ६३६।-सं०