पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/१७८

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स्थायी तथा प्रचल पूंजी के सिद्धांत । प्रकृतितंत्रवादी और ऐडम स्मिथ १७७ - 1 विभिन्न रूप हैं, जिन्हें वह अपने curriculum vitae { जीवन-क्रम ] में बार-बार क्रमशः धारण करता और फिर उतार देता है। ऐडम स्मिथ ने इसे उन भेद रूपों से उलझा दिया है - पीर प्रकृतितंत्रवादियों की तुलना में यह एक भारी पीछे क़दम है - जो पूंजी मूल्य के परिचलन क्षेत्र में, उसके क्रमिक रूपों के दौरान उसकी चक्रीय गति में उत्पन्न होते हैं, जब कि पूंजी मूल्य उत्पादक पूंजी के रूप में रहता है; और ये उत्पादक पूंजी के विभिन्न तत्वों के मूल्यों के निर्माण में भाग लेने और अपना मूल्य उत्पाद को अंतरित करने के भिन्न-भिन्न तरीकों से पैदा होते हैं। हम आगे देखेंगे कि एक और उत्पादक पूंजी और परिचलन क्षेत्र की पूंजी ( माल पूंजी और द्रव्य पूंजी) तथा दूसरी ओर स्थायी और प्रचल पूंजी में इस बुनियादी उलझाव का नतीजा क्या होता है। स्थायी पूंजी में पेशगी पूंजी मूल्य उत्पाद द्वारा उतना ही परिचालित होता है, जितना प्रचल पूंजी में पेशगी मूल्य और दोनों ही समान रूप से माल पूंजी के परिचलन द्वारा द्रव्य पूंजी में परिवर्तित होते हैं। अन्तर केवल इस तथ्य से पैदा होता है कि स्थायी पूंजी का मूल्य खंडशः परिचालित होता है और इसलिए न्यूनाधिक अवधि में उसका प्रतिस्थापन भी खंडशः करना होता है , भौतिक रूप में उसका पुनरुत्पादन करना होता है। प्रचल पूंजी से ऐडम स्मिथ का आशय परिचलन पूंजी , अर्थात परिचलन प्रक्रिया से सम्बद्ध पूंजी मूल्य के रूपों ( माल पूंजी और द्रव्य पूंजी) अलावा और किसी चीज़ से नहीं है - यह यहां उनके चुने बहुत ही भोंडे उदाहरण से प्रकट होता है। इस उद्देश्य के लिए वह इस तरह की पूंजी चुनते हैं, जो उत्पादन प्रक्रिया से सम्बद्ध है ही नहीं, वरन जो सदा परिचलन क्षेत्र में ही रहती है, जिसमें केवल परिचलन पूंजी- व्यापारी पूंजी-ही समाहित होती है। ऐसी मिसाल से शुरूआत करना, जिसमें पूंजी पूर्णतः उत्पादक पूंजी के रूप में आती ही नहीं है, कैसा बेतुका है, यह फ़ौरन स्वयं ऐडम स्मिथ ही बताते हैं : "उदाहरण के लिए , व्यापारी की पूंजी पूर्णतः प्रचल पूंजी है" [ खण्ड २, पृष्ठ २५५] । फिर भी वाद को हमें बताया जाता है कि प्रचल और स्थायी पूंजी का भेद स्वयं उत्पादक पूंजी के भीतर के तात्विक भेदों से उत्पन्न होता है। एक ओर ऐडम स्मिथ के मन में प्रकृतितंत्रवादियों द्वारा किया गया भेद है, दूसरी ओर वे विभिन्न रूप हैं, जिन्हें पूंजी मूल्य अपने परिपथ में धारण करता है। और इन दोनों को गड्डमड्ड कर दिया गया है। किन्तु द्रव्य और मालों के रूप परिवर्तन से , इनमें एक रूप से दूसरे में मूल्य के रूपांतरण से ही मुनाफ़ा कैसे पैदा हो जायेगा, यह वताना किसी के बस की बात नहीं है। व्याख्या करना एकदम नामुमकिन हो जाता है, क्योंकि यहां उन्होंने शुरुयात व्यापारी पूंजी से की है, जो केवल परिचलन क्षेत्र में गतिशील है। इसकी चर्चा आगे हम फिर करेंगे। पहले यह सुन लें कि स्थायी पूंजी के बारे में वह क्या कहते हैं [खण्ड २, पृष्ठ २५४-२५५] । "दूसरे , वह (पूंजी) भूमि सुधार में, उपयोगी मशीनें और व्यवसाय के अन्य उपकरण और ऐसी ही दूसरी चीजें खरीदने में प्रयुक्त की जा सकती है, जो मालिक बदले विना अथवा और आगे परिचालित हुए विना पाय या मुनाफ़ा दे सकती हैं। अतः ऐसी पूंजी को स्थायी पूंजी कहना बहुत उपयुक्त होगा। भिन्न-भिन्न पेशों में उनमें प्रयुक्त स्थायी और प्रचल पूंजी के अत्यंत भिन्न-भिन्न अनुपातों की आवश्यकता होती है हर मालिक कारीगर या कारखानेदार की पूंजी के कुछेक हिस्से का उसके व्यवसाय के उपकरणों में नियतन आवश्यक है। किन्तु यह हिस्सा कुछ धन्धों में बहुत छोटा होता है, तो औरों में बहुत बड़ा किन्तु ऐसे सभी मालिक कारीगरों (जैसे कि दर्जियों, मोचियों, बुनकरों) की पूंजी का बहुत बड़ा . (1 5 11-1180