पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२१३

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२१२ पूंजी का प्रावत . की विद्यमान राशि चाहे जो हो, मुख्य वात वैयक्तिक पूंजीपतियों के हाथों में उत्पादन तथा निर्वाह साधनों अथवा उनके विनियोग के फैलाव या संकेंद्रण की मात्रा, दूसरे शब्दों में पूंजियों के पहले ही हो चुके संकेंद्रण की माना है। चूंकि उधार पूंजी के एक हाथ में संकेंद्रण को प्रेरित करता, बढ़ाता और तेज़ करता है, इसलिए वह कार्य अवधि और इस प्रकार यावर्त काल को भी घटाने में योग देता है। उत्पादन की जिन शाखाओं में निश्चित प्राकृतिक परिस्थितियां कार्य अवधि को निर्धारित करती हैं, फिर चाहे वह सतत हो या असतत , उनमें उपर्युक्त साधनों द्वारा किसी प्रकार की घटती नहीं हो सकती। डब्ल्यू० वाल्टर गुड अपनी पुस्तक Political, Agricultural and Commercial Fallacies ( लंदन , १८६६, पृष्ठ ३२५) में कहते हैं : “जहां तक तेज़ प्रतिफलों का सवाल है, यह परिभापा अनाज की फ़सलों पर लागू नहीं की जा सकती, क्योंकि साल में केवल एक ही प्रत्यावर्तन हो सकता है। पशुधन के प्रसंग में हम इतना ही पूजेंगे कि २-३ साल की भेड़ और ४-५ साल के वैल के प्रतिफल को और तेज़ कैसे किया जा सकता है।" जितना जल्दी हो सके नक़द धन पाने की ज़रूरत ( उदाहरणतः कर, किराया ज़मीन , वगैरह जैसे दायित्वों को पूरा करने के लिए ) इस मसले को इस तरह हल कर देती है, जैसे पशुओं के आर्थिक दृष्टि से सामान्य प्रायु पर पहुंचने के पहले ही उन्हें वेचकर या काटकर, जिससे कृपि को बहुत नुकसान होता है। इससे आखिर में गोश्त का भाव भी चढ़ जाता है। "जो लोग मुख्यतः गरमियों में मिडलैंड की काउंटियों के चरागाहों और जाड़ों में पूर्वी काउंटियों के बाड़ों के लिए पशुपालन करते रहे हैं ... वे अनाज की कीमतों की अनिश्चितता और गिरावट से ऐसे पंगु हो गये हैं कि मक्खन और पनीर की बढ़ी हुई कीमतों का लाभ उठाते उन्हें प्रसन्नता होती है। मक्खन वे वाज़ार में चालू खर्च निपटाने के लिए हर हफ्ते ले जाते हैं और पनीर का पैसा किसी विचौलिये से ले लेते हैं, जो उसे ले जाने लायक होने पर ले लेता है, और वेशक लगभग अपनी मनचाही कीमत पर ही लेता है। इसलिए - मगर यह ध्यान में रखते हुए कि कृपि को भी राजनीतिक अर्थशास्त्र के नियम शासित करते हैं - जो बछड़े दुग्धोद्योगप्रधान काउंटियों से पाले-पोसे जाने के लिए दक्षिण आया करते थे, उन्हें अब कभी-कभी तो हफ्ते या दस दिन की उम्र में ही अधिकतर वरमिंघम , मैंचेस्टर, लिवरपूल और दूसरे बड़े पड़ोसी शहरों के बूचड़खानों में काट दिया जाता है। लेकिन अगर माल्ट पर महसूल न होता, तो न सिर्फ़ फ़ार्मर ज्यादा लाभ कमाते और इस तरह अपना पशुधन अधिक उम्र का और ज्यादा भारी हो जाने तक रखने में समर्थ हो गये होते, बल्कि जिन लोगों के पास गायें नहीं हैं, उनके लिए वह वछड़ों का पालन करने में दूध का काम दे देता और इस तरह आज देश पर जवान ढोरों का जो भयानक अभाव छाया हुआ है, उससे बहुत कुछ बचा जा सकता था। पशुपालन के सुझावों के जवाब में ये छोटे लोग अव कहते हैं ; 'हम खूब जानते हैं कि दूध पर पालना लाभकारी होगा, लेकिन इसके लिए हमें पहले अपनी थैली टटोलनी होगी और हम यह कर नहीं सकते , और फिर हमें प्रतिफल दुग्धव्यवसाय द्वारा तुरंत प्राप्त करने की जगह वहुत दिन इंतजार करना होगा'" ( वही, पृष्ठ ११ और १२)। आवर्त काल के बढ़ने से अगर छोटे अंग्रेज़ फ़ार्मरों के सामने ऐसे नतीजे पाते हैं, तो यह समझना आसान है कि इससे यूरोप के छोटे फ़ार्मरों के यहां कैसी गड़वड़ी पैदा होगी। i 1