पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२१४

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कार्य अवधि २१३ स्थायी पूंजी द्वारा तह दर तह उत्पाद को अंतरित मूल्यांश इकट्ठा होता रहता है। कार्य अवधि जितनी लंबी होती है और इस प्रकार परिचलन योग्य माल तैयार करने की आवश्यक अवधि जितनी लंबी होती है, इस मूल्यांश की वापसी में उतनी ही देर लगती है। किंतु इस देर के कारण स्थायी पूंजी का नये सिरे से व्यय नहीं होता। उत्पादन प्रक्रिया में मशीन अपना काम करती रहती है, द्रव्य रूप में उसकी छीजन के प्रतिस्थापन का प्रत्यावर्तन चाहे जल्दी हो, चाहे धीरे-धीरे। प्रचल पूंजी की स्थिति इससे भिन्न है। न सिर्फ कार्य अवधि की दीर्घता के अनुपात में पूंजी अधिक समय तक बंधी रहती है, बल्कि मजदूरी , कच्चे माल और सहायक सामग्री के रूप में निरंतर नई पूंजी पेशगी देनी होती है। अतः विलम्वित प्रत्यावर्तन का प्रभाव प्रत्येक पर भिन्न-भिन्न होता है। प्रत्यावर्तन जल्दी हो चाहे धीरे, स्थायी पूंजी कार्य- शील बनी रहती है। किंतु यदि प्रत्यावर्तन में विलंब हो, यदि प्रचल पूंजी अनविके, अधूरे और अनविकाऊ उत्पाद के रूप में बंधी रहे, यदि उसके वस्तुरूप में नवीकरण के लिए अतिरिक्त पूंजी तत्काल सुलभ न हो, तो प्रचल पूंजी अपना कार्य नहीं कर पाती। " किसान तो भूखों मरता है , पर उसके मवेशी फूलते-फलते हैं। देश में वार-बार वर्षा हुई थी] और चारे की इफ़रात थी। हिंदू किसान के पास चाहे मोटा-ताज़ा बैल हो, लेकिन वह खुद भूखों मर जायेगा। अंधविश्वासों की व्यवस्था, जो व्यक्ति के लिए क्रूर प्रतीत होती है, वह समुदाय के लिए संरक्षणशील है, कमकर पशुओं का परिरक्षण कृषि की शक्ति को और भावी जीवन और संपदा के स्रोतों को सुरक्षित करता है। यह बात कहने में कटु और दुखद जान पड़ सकती है, पर हिंदुस्तान में एक आदमी की जगह दूसरा आदमी पा जाना आसान है, पर एक बैल की जगह दूसरा वैल पाना नहीं" (Return, East India. Madras and Orissa Famine. अंक ४, पृष्ठ ४४)। इससे मानव धर्मशास्त्र, अध्याय १०, ६ ६२ की इस उक्ति की तुलना कीजिये : फल की आशा किये विना गो-ब्राह्मण की रक्षा करता हुआ अंत्यज शरीर त्याग दे... तो इससे उसे मोक्ष लाभ होगा।"* क़ुदरती तौर पर पंचवर्षीय पशु को पांच साल बीतने से पहले हाट में पहुंचाना असंभव है। लेकिन कुछ सीमाओं के भीतर जो संभव है, वह यह कि पशुपालन का तरीक़ा बदलकर पशुओं को कम समय में गंतव्य के लिए तैयार कर दिया जाये। वेकवेल ने ठीक यही किया था। पहले, १८५५ तक भी फ्रांसीसी भेड़ों की तरह ही अंग्रेज़ी भेड़ें भी चार-पांच साल की होने तक कसाईखाने के लायक न होती थीं। वेकवेल पद्धति के अनुसार भेड़ को साल भर की उम्र में ही मोटा किया जा सकता है और हर हालत में दूसरा साल ख़त्म होने तक वह पूरी वाढ पर पहुंच जाती है। डिशले ग्रेज के फ़ार्मर वेकवेल ने कुशल वरण द्वारा भेड़ के कंकाल को घटाते-घटाते वस उतना कर दिया है कि जितना उसके जीवन के लिए जरूरी है। उसकी भेड़ें न्यू लीस्टर भेड़ें कहलाती हैं। • पशुपालक पहले जितनी देर में बाज़ार के लिए एक भेड़ तैयार करता था, उतनी देर में अव तीन भेज सकता है। अगर अब वे ऊंचाई में कम हैं, तो चौड़ी और गोल-मटोल ज्यादा हैं , और जिन हिस्सों से सबसे ज्यादा मांस होता है , वे ज़्यादा भरे हुए हैं। हड्डियां वस उतनी ही होती हैं कि जितनी उन्हें टिकाये रखने के लिए ज़रूरी होती हैं, और , It • मार्क्स ने अपने उद्धरण Manava Dharma Sastra, or the Institutes of Manu According to the Gloss of Kulluka, Comprising the Indian System of Duties, Religious and Civil, third edition, Madras, 1863, p. 281 # Faq Iro