पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२१६

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२१५ अध्याय १३ उत्पादन काल कार्य काल सदा उत्पादन काल होता है, अर्थात यह वह समय होता है, जिसमें पूंजी उत्पादन क्षेत्र में दृढ़तापूर्वक जकड़ी रहती है। किंतु इसके विपरीत जितने समय पूंजी उत्पादन प्रक्रिया में लगी रहती है, वह सारा समय अनिवार्यतः कार्य काल नहीं होता। यहां यह श्रम प्रक्रिया के उन व्यवधानों का प्रश्न नहीं है, जो स्वयं श्रम शक्ति की नैसर्गिक सीमानों के कारण अनिवार्य हो जाते हैं, यद्यपि हम देख चुके हैं, किस सीमा तक मात्र यह परिस्थिति कि श्रम प्रक्रिया के दौरान विराम की अवधियों में कारखानों की इमारतों, मशीनों, आदि के रूप में स्थायी पूंजी निष्क्रिय पड़ी रहती है,* श्रम प्रक्रिया को अस्वाभाविक रूप से बढ़ाने और दिन-रात काम चलाने की एक प्रेरक बन जाती है। हम यहां उन व्यवधानों की चर्चा कर रहे हैं, जो श्रम प्रक्रिया की दीर्घता से स्वतंत्र होते हैं, जो उत्पाद की प्रकृति से ही और उसके निर्माण से उत्पन्न होते हैं, जिसके दौरान श्रम वस्तु , न्यूनाधिक काल के लिए प्राकृतिक प्रक्रियाओं के प्रभ में पाती और उसे भौतिक , रासायनिक और शरीरक्रियात्मक परिवर्तनों से गुजरना पड़ता है, जिनके दौरान श्रम प्रक्रिया अंशतः अथवा पूर्णतः स्थगित रहती है। उदाहरण के लिए , अंगूर को पेरे जाने के बाद कुछ समय किण्वित करना होता है और फिर कुछ समय तक शांत रहने देना होता है, जिससे कि वह एक निश्चित कोटि की श्रेष्ठता को प्राप्त हो सके। उद्योग की बहुत सी शाखाओं में उत्पाद को शुष्कन प्रक्रिया से गुजरना होता है, जैसे मिट्टी के बरतन वनाने में अथवा उसके रासायनिक गुण वदलने के लिए कुछ परिस्थि- तियों के अधीन किया जाता है, जैसे रंग उड़ाने - विरंजन -में। शीतकालीन अनाज को तैयार होने में लगभग नौ महीने लगते हैं। बुआई और कटाई के वीच श्रम प्रक्रिया प्रायः पूर्णत: स्थगित रहती है। वनरोपण में वोने और अन्य प्रासंगिक प्रारंभिक काम समाप्त हो जाने के वाद वीज को तैयार उत्पाद में रूपांतरित होने में लगभग सौ वर्ष लगते हैं, और इस सारे वक्त में उसे श्रम क्रिया की अपेक्षाकृत बहुत ही कम आवश्यकता होती है। इन सभी उदाहरणों में अतिरिक्त श्रम को उत्पादन काल काफ़ी बड़े हिस्से में यदा-कदा ही काम में लगाया जाता है। पिछले अध्याय में वर्णित वह परिस्थिति , जिसमें उत्पादन प्रक्रिया में पहले से बंधी हुई पूंजी को अतिरिक्त पूंजी और श्रम की पूर्ति करनी होती है, यहां छोटे-बड़े अंतरालों के वाद ही पायी जाती है। - • कार्ल मार्क्स , 'पूंजी', हिन्दी संस्करण , खड १, पृष्ठ २६०-२६८ 1-सं०