पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२१७

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२१६ पूंजी का यावर्त अतः इन सभी उदाहरणों में पेशगी पूंजी के उत्पादन काल में दो अवधियां होती हैं : पहली अवधि, जिसमें पूंजी श्रम प्रक्रिया में लगी होती है और दूसरी, जिसमें उसके अस्तित्व का रूप-अधूरे उत्पाद का ल्प - प्राकृतिक प्रक्रियाओं के वशाधीन छोड़ दिया जाता है और उस समय वह श्रम प्रक्रिया में नहीं होता। और न इससे ही कुछ भी फ़र्क पड़ता है कि ये दोनों कालावधियां जहां-तहां एक दूसरे को लांघ जायें या एक दूसरे में घुसे। इन मामलों में कार्य अवधि और उत्पादन अवधि संपाती नहीं होती। श्रम अवधि की अपेक्षा उत्पादन अवधि दीर्घतर होती है। किंतु उत्पादन अवधि के पूरा होने के पहले उत्पाद तैयार नहीं होता, अधूरा रहता है, अतः उत्पादक पूंजी से माल पूंजी में परिवर्तित होने के योग्य नहीं होता। फलतः उस आवर्त काल की दीर्घता उत्पादन काल की दीर्घता के अनुपात में बढ़ जाती है, जिसमें कार्य काल समाहित नहीं होता। चूंकि कार्य काल से अतिरिक्त उत्पादन काल को ऐसे निश्चित और सार्विक प्राकृतिक नियमों द्वारा निर्धारित नहीं किया जाता , जैसे अनाज के पकने या वांज के बढ़ने , वगैरह को निर्धारित करते हैं, इसलिए अकसर उत्पादन काल को कृत्रिम रूप से घटाकर ग्रावर्त काल को कमोवेश घटाया जा सकता है । ऐसी कुछ मिसालें हैं : खुले में विरंजन के बदले रासायनिक विरंजन का और अधिक कार्यक्षम शुष्कन यंत्रों का चलन । अथवा चमड़ा पकाने में , जिसमें पहले पुराने तरीके से टैनिक अम्ल के खाल में प्रवेश करने में छः से अठारह महीने तक लग जाते थे, जब कि नये तरीके से हवा भरने के पंप के जरिये यह काम डेढ़- दो महीने में ही पूरा हो जाता है (जॉन कूरसेल-सेनेविल , Traité theorique et pratique des entreprises industrielles, etc., पेरिस, १८५७, द्वितीय संस्करण)। एकमात्र प्राकृतिक प्रक्रियाओं द्वारा लगनेवाले उत्पादन काल को कृत्रिम रूप से कम करने की सबसे शानदार मिसाल लोहा बनाने के इतिहास से, खास तौर से पिछले सी साल में कच्चे लोहे के इस्पात में रूपांतरण के १७८० के आस-पास आविष्कृत पालोडन प्रक्रिया से लेकर आधुनिक वेसमर प्रक्रिया और उसके बाद प्रवर्तित नये तरीकों तक के इतिहास से मिलती है। उत्पादन काल में जबरदस्त कमी कर दी गई है, किंतु इसके अनुपात में स्थायी पूंजी निवेश में वृद्धि भी हुई है। कार्य काल को उत्पादन काल से भिन्नता की एक ख़ास मिसाल अमरीका में जूतों के कल- बूतों ( सांचों) के निर्माण में मिलती है। इस मामले में लकड़ी को कम से कम अठारह महीने तक रखे रखना पड़ता है, जिससे कि वह सूखकर सांचा बनाने लायक़ बन सके और बाद में ऐंठे नहीं, जिससे काफ़ी अनुत्पादक खर्च बढ़ जाता है। इस वीच लकड़ी और किसी श्रम प्रक्रिया से नहीं गुज़रती। अतः निवेशित पूंजी के आवर्त काल को सांचे बनाने का समय ही नहीं, वरन वह समय भी निर्धारित करता है, जिसके बीच वह सूखते काठ की शक्ल में अनुत्पादक पड़ी रहती है। वास्तविक श्रम प्रक्रिया में दाखिल होने से पहले उसे अठारह महीने उत्पादन प्रक्रिया में बने रहना होता है। इस मिसाल से यह भी पता चलता है कि कुल प्रचल पूंजी के विभिन्न भागों के आवर्त काल ऐसी परिस्थितियों के फलस्वरूप भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, जो परिचलन क्षेत्र में उत्पन्न नहीं होतीं, वरन जिनका उद्भव उत्पादन प्रक्रिया के कारण होता है। उत्पादन काल और कार्य काल का अंतर कृपि में ख़ास तौर से स्पष्ट हो जाता है। हमारे मृदुल जलवायु में धरती वर्ष में एक वार अनाज पैदा करती है । स्वयं उत्पादन अवंधि का घटना या वढ़ना (शीतकालीन अनाज के लिए यह अौसतन नौ महीने होता है ) अच्छी और बुरी ऋतुओं के हेरफेर पर निर्भर करता है और इस कारण उसके घटने-बढ़ने को पहले से वैसे