पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२१८

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उत्पादन काल २१७ - मटीकतापूर्वक नियंत्रित और निर्धारित नहीं किया जा सकता, जैसे वास्तविक उद्योग में किया जा सकता है। दूध , पनीर, आदि जैसे उपोत्पाद ही अपेक्षाकृत अल्प अवधि में निश्चित गति से पैदा किये और बेचे जा सकते हैं। इसके विपरीत कार्य काल संबंधी आंकड़े इस प्रकार होते हैं : “जलवायु तथा अन्य निर्धारक परिस्थितियों का उचित ध्यान रखते हुए जर्मनी के विभिन्न प्रदेशों में तीन मुख्य कार्य अवधियों में कार्य दिवसों की संख्या अनुमानतः यह होगी : मार्च के मध्य से अथवा शुरू अप्रैल से लेकर मई के मध्य तक वसंत की अवधि में कोई ५०-६० कार्य दिवस ; शुरू जून से लेकर अगस्त के आखिर तक ग्रीष्म की अवधि में ६५-८० तक ; शुरू सितंबर से लेकर अक्तूबर के आखिर तक अथवा नवंबर के मध्य या अंत तक शरद की अवधि में ५५-७५ तक। शीतकाल के लिए केवल उस समय किये जानेवाले प्रथागत कामों का ही उल्लेख करना होगा, जैसे खाद , लकड़ी, वाज़ार का सामान , घर वनाने का सामान , वगैरह ढोकर लाना" (फे० fepoolsh, Handbuch der landwirtschaftlichen Betriebslehre, ड्रेस्डेन , १८५२, पृष्ठ १६०)। जलवायु जितना ही प्रतिकूल होगा, खेती में कार्य अवधि उतना ही अधिक संकुल होगी और इसलिए पूंजी और श्रम की व्यय करने का समय भी अधिक छोटा होगा। उदाहरण के लिए , रूस को ले लीजिये। उस देश के कुछ उत्तरी जिलों में साल भर में सिर्फ़ १३० से १५० दिन तक खेत में काम किया जा सकता है। कल्पना की जा सकती है कि जाड़े के छ: या आठ महीनों में , जव कृषि कार्य ठप पड़ा रहता है, यदि रूस की यूरोपीय आवादी के साढ़े छः करोड़ में से पांच करोड़ लोग काम के विना रहते , तो रूस को कितना नुकसान सहना पड़ता। रूस के १०,५०० कारखानों में काम करनेवाले २,००,००० किसानों के अलावा हर जगह गांवों में स्थानीय घरेलू उद्योग विकसित हो गये हैं। ऐसे गांव हैं, जहां के सारे किसान पीढ़ी दर पीढ़ी वुनकर, चमड़ा कमानेवाले, मोची , तालासाज़, छुरीसाज़ , वगैरह होते आये हैं। यह वात खास तौर से मास्को, व्लादीमिर, कलूगा, कोस्त्रोमा तथा पीटर्सवर्ग की गुवेर्नि- याओं में देखी जाती है। प्रसंगवश , इस घरेलू उद्योग को अधिकाधिक पूंजीवादी उत्पादन के मातहत लाया जा रहा है। मसलन , बुनकरों को सीधे व्यापारियों या विचौलियों द्वारा ताना- ATAT FEUT HIATI (Reports by H. M. Secretaries of Embassy and Legation, on the Manufactures, Commerce, etc. fiftci, अंक ८, १८६५, पृष्ठ ८६ और ८७१) हम यहां देखते हैं कि कार्य अवधि की उत्पादन काल से भिन्नता- क्योंकि अंतोक्त काल प्रथमोक्त का अंश मात्र है-खेती को दूसरे गौण देहाती उद्योगों से संयुक्त करने का नैसर्गिक आधार है और अपनी वारी में ये गौण उद्योग पूंजीपति के लिए सहूलियतें पैदा करते हैं, जो उनमें सबसे पहले व्यापारी के रूप में घुसपैठ करता है। आगे चलकर जव पूंजीवादी उत्पादन हस्त उद्योग को खेती से अलग कर देता है, तब ग्रामीण मजदूर केवल समय-समय पर मिलने- वाले सहायक काम पर ही अधिकाधिक निर्भर होता जाता है, और इस तरह उसकी हालत वदतर होती जाती है। जैसा कि हम आगे देखेंगे पूंजी के लिए आवर्त के सभी अंतर वरावर हो जाते हैं। किंतु श्रमिक के लिए ऐसा नहीं होता। उद्योग की अधिकांश शाखाओं- खनन, परिवहन, आदि में काम समगति से चलता रहता है। कार्य अवधि साल दर साल एक सी रहती है और कीमतों के उतार- चढ़ाव , व्यवसाय में गड़बड़ी, आदि जैसे असामान्य व्यवधानों को छोड़कर परिव्यय का परि- चलन प्रक्रिया में दैनिक अंतरण समगति से होता रहता है। इसी प्रकार वाजार की हालत एक ,