पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२२०

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उत्पादन काल २१३ हो जाती हैं, उत्पादन के लिए पेशगी दी गई और मजदूरी , खाद, बीज , आदि में निवेशित प्रचल पूंजी में वृद्धि की अपेक्षा करते हैं। ज़मीन परती छोड़कर तिनखेतिया पद्धति से परती छोड़े विना फ़सलों के हेरफेर की पद्धति में संक्रमण में ऐसा ही होता है। इसके अलावा यह बात फ्लैंडर्स की cultures dérobées अवकाशवाली कृषि पर भी लागू होती है। "Cultures dérobées में कंद मूल फ़सलें उगायी जाती हैं ; एक ही खेत मनुष्य की आवश्यक- तारों के लिए वारी-बारी से पहले अनाज , फ़्लैक्स, कोल्ज़ा पैदा करता है और उनकी कटाई के बाद पशुओं को खिलाने के लिए कंद मूल फ़सलें वो दी जाती हैं। यह पद्धति , जिसमें मवेशियों को वाड़ों में रखा जा सकता है, काफ़ी मात्रा में खाद पैदा करती है और इस प्रकार यह फ़सलों के हेरफेर का आधार बन जाती है। "रेतीले इलाकों एक तिहाई से ज्यादा कृषि क्षेत्र इसी cultures dérobées के अंतर्गत आता है, यह ऐसा ही है, मानो खेती की जमीन में एक तिहाई बढ़ती हो गई हो।" कंद मूल फ़सलों के अलावा इसी तरह तिपतिया तथा अन्य चारा पौधों का भी इस कार्य के लिए प्रयोग किया जाता है। "इस तरह कृषि ऐसी स्थिति में पहुंच जाती है कि वह उद्यान कृपि में परिणत हो जाती है और स्वाभाविक तौर पर उसके लिए काफ़ी पूंजी निवेश ज़रूरी हो जाता है। इंगलैंड में २५० फ्रैंक प्रति हैक्टर कूती जानेवाली यह पूंजी फ़्लैंडर्स में लगभग ५०० फ्रैंक होगी, जिसे अच्छा फ़ार्मर अपनी जमीन को देखते हुए निस्संदेह वहुत थोड़ा समझेगा (एमील दे लॉवेल , Essais sur 'economie rurale de la Belgique, पेरिस , १८६३, पृष्ठ ४५, ४६ और ४८)। अंत में वन उगाना ले लीजिये । “लकड़ी का उत्पादन अधिकांश अन्य उत्पादन शाखाओं से तत्वतः इस बात में भिन्न है कि यहां प्रकृति की शक्तियां स्वतंत्र रूप से काम करती हैं और नैसर्गिक वृद्धि के समय उन्हें मनुष्य की शक्ति या पूंजी दरकार नहीं होती। उन स्थानों में भी , जहां कृत्रिम रूप से जंगल उगाये जाते हैं, प्राकृतिक शक्तियों की क्रिया की तुलना में मनुष्य और पूंजी की शक्ति का व्यय नगण्य होता है। इसके अलावा जंगल ऐसी जगहों और ऐसी ज़मीन पर भी फूल-फल सकते हैं, जहां अनाज पैदा नहीं हो सकता या जहां उसकी काश्त लाभदायी नहीं रहती। फिर नियमित आर्थिक कार्यकलाप की तरह करने पर वन व्यवसाय के . लिए कृपि की अपेक्षा अधिक भूमि की आवश्यकता होगी, क्योंकि छोटे भूखंड सही वनवैज्ञानिक विधियों के उपयोग के उपयुक्त नहीं होते , ज़मीन को जिन गीण उपयोगों में लाया जा सकता है, उनके उपभोग को काफ़ी हद तक रोकते हैं, वनरक्षण को अधिक कठिन बनाते हैं, इत्यादि। किंतु उत्पादन प्रक्रिया की अवधि इतनी लंबी होती है कि वह वैयक्तिक फ़ार्मों के आयोजन की सीमाएं लांघ जाती है और कुछ मामलों में तो मानव जीवन के संपूर्ण विस्तार को भी पार कर जाती है। वन भूमि की खरीद में निवेशित पूंजी" ( सामुदायिक उत्पादन के मामले में यह पूंजी अनावश्यक हो जाती है, क्योंकि तव प्रश्न केवल यह होता है कि समाज अपनी बुआई और चराई की जमीन में से जंगलात के लिए कितनी भूमि छोड़ सकता है ) “वहुत लंबा समय बीतने के पहले यथेष्ट प्रतिफल नहीं देगी और तब भी उसका आंशिक आवर्त ही होता है। कुछ ख़ास किस्मों के पेड़ पैदा करनेवाले जंगलों में पूरे आवर्त में डेढ़ सौ साल तक का समय लग जाता है। इसके अलावा स्वयं सुव्यवस्थित वनोत्पादक प्रतिष्ठान के पास वन की इतनी पूर्ति होनी चाहिए कि जो वार्षिक पैदावार की १० से ४० गुना तक होती है। इसलिए जब तक किसी के पास प्राय के दूसरे साधन न हों और उसके अधिकार में जंगल के जंगल