पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२२१

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पूंजी का प्रावत ही न हों, तब तक वह वाक़ायदा वन व्यवसाय में नहीं लग सकता" (किर्कोफ़, पृष्ठ ५८)। दीर्य उत्पादन काल ( जिसमें अपेक्षाकृत कम कार्य काल समाहित होता है), तथा संबद्ध प्रावों की बहुत लंबी अवधि से वन व्यवसाय निजी और इसलिए पूंजीवादी उद्यम के लिए बहुत कम आकर्षण का उद्योग बन जाता है। पूंजीवादी उद्यम तो तत्वतः निजी ही होता है, भले ही वैयक्तिक पूंजीपति का स्थान सहचारी पूंजीपति ले ले। सामान्य रूप से संस्कृति के तथा उद्योग के विकास ने अपने आपको जंगलों को ऐसे ज़ोरों के विनाश में प्रकट किया है कि उसके द्वारा दूसरी ओर उनके रख-रखाव और बहाली के लिए जो कुछ किया जाता है, वह अतितुच्छ जान पड़ता है। किकॉफ़ उपरोक्त उद्धरण में निम्नलिखित अंश विशेष ध्यान देने योग्य है : "इसके अलावा, स्वयं सुव्यवस्थित वनोत्पादक प्रतिष्ठान के पास वन की इतनी पूर्ति होनी चाहिए कि जो वार्पिक पैदावार की १० से ४० गुना तक होती है।" दूसरे शब्दों में आवर्त कहीं १० से ४० साल में अथवा इससे भी अधिक वर्षों में एक बार होता है। यही बात पशुपालन पर लागू होती है। यूथ का एक भाग ( मवेशियों की पूर्ति ) उत्पादन प्रक्रिया में रहता है, जब कि दूसरा उत्पाद के रूप में प्रति वर्ष वेचा जाता है। इस मामले में प्रति वर्ष पूंजी के एक भाग का ही आवर्त होता है, जैसे मशीनों, कमकर पशुओं, आदि के रूप में स्थायी पूंजी के मामले में होता है। यद्यपि यह पूंजी उत्पादन प्रक्रिया में दीर्घ काल के लिए नियत पूंजी है, और इस प्रकार वह कुल पूंजी के आवर्त को प्रवर्धित कर देती है, फिर भी वह सही मानों में स्थायी पूंजी नहीं है। जिसे यहां पूर्ति कहा गया है-खड़े वृक्षों या पशुधन की एक निश्चित मात्रा वह सापेक्ष रूप में उत्पादन प्रक्रिया में रहती है ( श्रम उपकरणों तथा श्रम सामग्री की तरह साथ-साथ); इस पूर्ति के काफ़ी हिस्से को उचित प्रबंध के अंतर्गत अपने पुनरुत्पादन की प्राकृतिक परि- स्थितियों के अनुसार इस रूप में सदैव सुलभ रहना होता है। आवर्त पर ऐसा ही प्रभाव एक दूसरी तरह की पूर्ति भी डालती है, जो केवल संभाव्य उत्पादक पूंजी ही होती है, किंतु जिसे इस आर्थिक कार्यकलाप की प्रकृति के कारण कमोबेश यथेष्ट मात्रा में संचित करना और इस तरह उत्पादन हेतु दीर्घ काल के लिए पेशगी लगाना होता ह , यद्यपि वास्तविक उत्पादन प्रक्रिया में वह धीरे-धीरे ही प्रवेश करती है। मिसाल के लिए, खेत में डाले जाने से पहले खाद इसी श्रेणी में आती है, इसके अलावा अनाज , भूसा, वगैरह , और पशु उत्पादन में प्रयुक्त निर्वाह साधनों की पूर्ति भी इसी श्रेणी में हैं। “कार्यशील पूंजी का काफ़ी हिस्सा फ़ार्म की पूर्ति में समाहित होता है। किंतु इस पूर्ति को यदि अच्छी हालत में बनाये रखने के लिए आवश्यक पूर्वोपायों का ठीक से पालन न किया जाये , तो उसका मूल्य न्यूनाधिक मात्रा में नष्ट हो सकता है। लापरवाही के परिणामस्वरूप फ़ार्म के उत्पादन की पूर्ति का एक भाग पूर्णतः नप्ट भी हो सकता है। इस कारण खलिहानों, सूखी घास और अनाज के गोदामों और तहखानों की सावधानीपूर्वक जांच-पड़ताल अनिवार्य हो जाती है, भंडार घरों को हमेशा साफ़-सुथरा, हवादार, बंद, वगैरह रखना चाहिए। गोदाम में रखे अनाज और अन्य फसलों को समय-समय पर पूरी तरह से उलटा-पलटा जाना चाहिए, आलू और चुकंदर को हिमपात , वर्षा और सड़ने से बचाना चाहिए" (किर्कोफ़ , पृष्ठ २९२)। “अपनी खुद की, ख़ास तौर से मवेशियों के अनुरक्षण की आवश्यकतानों का हिसाब लगाते समय वितरण प्राप्त उपज तथा उसके उद्दिष्ट उपयोग के अनुसार किया जाना चाहिए। अपनी सामान्य