पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२२३

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पूंजी का पात से तदनुरूप और बड़ी राशि एकबारगी निकल जाती है, और व्यवसाय में इतनी पूंजी को छोड़ना हमेशा ही संभव नहीं होता" (किकॉफ़ , पृष्ठ ३०१) । जैसा कि हम देख चुके हैं, उत्पादन काल और कार्य काल में कई वैभिन्य हो सकते हैं। प्रचल पूंजी के लिए वह वास्तविक उत्पादन प्रक्रिया में दाखिल होने से पहले का कार्य काल हो सकता है ( जूते के सांचों का उत्पादन ); अथवा वह वास्तविक श्रम प्रक्रिया गुज़र चुकने के बाद का उत्पादन काल हो सकता है (शराव , वीज धान्य ); अथवा उत्पादन काल जव- तब कार्य काल द्वारा विछिन्न हो जाता है (कृपि, वृक्षोत्पादन )। परिचलन योग्य उत्पाद का काफ़ी बड़ा हिल्सा सक्रिय उत्पादन प्रक्रिया में समाविष्ट रहता है, जब कि कहीं छोटा भाग वार्षिक परिचलन में प्रवेश कर जाता है (वृक्षोत्पादन और पशुपालन )। संभाव्य उत्पादक पूंजी के रूप में प्रचल पूंजी के लगाये जाने की अवधि का न्यूनाधिक होना और इसलिए एक वार में पेशगी दी जानेवाली राशि का न्यूनाधिक होना भी अंशतः इस पर कि उत्पादक प्रक्रिया किस तरह की है ( कृपि), और अंशतः वाज़ार की निकटता पर, संक्षेप में परिचलन क्षेत्र से संगत परिस्थितियों पर निर्भर करता है। हम आगे चलकर देखेंगे (खंड ३) कि कार्य काल से भिन्न उत्पादन काल का कार्य काल के साथ तादात्म्य स्थापित करने के प्रयत्न के फलस्वरूप मैक-कुलोच , जेम्स मिल , आदि कैसे वेसिरपैर के सिद्धांतों पर पहुंचे हैं। अपनी वारी में यह प्रयत्न मूल्य सिद्धांत ग़लत प्रयोग का परिणाम है। जिस पावर्त चक्र पर हमने ऊपर विचार किया है वह उत्पादन प्रक्रिया के लिए पेशगी स्थायी पूंजी के टिकाऊपन द्वारा निर्धारित होता है। चूंकि यह चक्र कई वर्षों तक चलता है, इसलिए उसमें या तो स्थायी पूंजी के वार्षिक प्रावों की एक शृंखला या वर्ष के भीतर दोहराये जानेवाले आवतों की शृंखला समाविष्ट होती है। कृपि में ऐसा आवर्त चक्र फ़सलों के हेरफेर की पद्धति से उत्पन्न होता है। “पट्टे की अवधि किसी भी सूरत में फ़सलों के हेरफेर की अंगीकृत पद्धति के पूरा होने के समय से कम नहीं होनी चाहिए। इसीलिए तिनखेतिया पद्धति में लोग हमेशा ३, ६, ६, वगैरह का हिसाव लगाते हैं। परती जमीन को खाली छोड़ने की इस पद्धति में खेत को छ: साल में चार वार ही काश्त किया जाता है। काश्त के सालों में उसमें जाड़ों और गरमी की फ़सलें बोयी जाती हैं और जमीन माफ़िक हुई या उसके लिए जरूरी हुअा, तो बारी-बारी गेहूं और रई, जी और जई बोये जाते हैं। एक ही जमीन पर हर किस्म के धान्य की पैदावार अलग-अलग होती है, उनमें हरेक का मूल्य अलग होता है और वह अलग कीमत पर बेचा जाता है। इस कारण खेत की पैदावार उसे काश्त करने के हर साल भिन्न होती है और हेरफेर के प्रथमार्ध (पहले तीन वर्षों ) में पैदावार उत्तरार्ध की पैदावार से भिन्न होती है। हेरफेर की एक अवधि की श्रीसत पैदावार भी दूसरी अवधि की अौसत पैदावार के बरावर नहीं होती , क्योंकि उर्वरता सिर्फ़ मिट्टी के अच्छेपन पर ही नहीं, बल्कि हर साल के मौसम पर भी निर्भर करती है, जैसे वाज़ार भाव बदलती हुई परिस्थितियों पर निर्भर करते हैं। इसलिए यदि कोई पूरे छः साल की हेरफेर की अवधि की औसत उर्वरता और औसत वाजार भाव को ध्यान में रखकर खेत की आमदनी का हिसाब लगाये , तो उससे हेरफेर की किसी भी अवधि में साल भर की कुल आमदनी निकल .