पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२२९

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पूंजी का प्रावर्त . स्वाभाविक ही है कि माल परिचलन काल के बढ़ने के साथ बाजार में भाव वदल जाने का ख़तरा ज्यादा होगा, क्योंकि भावों के बदल सकने की अवधि बढ़ जाती है। परिचलन काल में अंतर , अंशतः व्यवसाय की एक ही शाखा की विभिन्न पृथक पूंजियों में वैयक्तिक अंतर और अंशतः अलग-अलग मीयादों के अनुसार व्यवसाय की विभिन्न शाखानों के बीच अंतर, जहां नकद भुगतान नहीं होता, क्रय-विऋत्य में भुगतान की विभिन्न शर्तों से पैदा होते हैं। हम इस बात पर, जो उधार पद्धति के लिए महत्वपूर्ण है , यहां और विचार नहीं करेंगे। यावर्त काल में अंतर माल की सुपुर्दगी के इक़रारनामों के परिमाण से भी पैदा होते हैं और उनका परिमाण पूंजीवादी उत्पादन के प्रसार और विस्तार के साथ-साथ बढ़ता जाता है। माल की सुपुर्दगी का इकरारनामा ग्राहक और विक्रेता के बीच व्यवहार के नाते एक ऐसा काम है, जो बाजार से , परिचलन क्षेत्र से संबद्ध है। इसलिए आवर्त काल में यहां पैदा होनेवाले अंतर परिचलन क्षेत्र से उत्पन्न होते हैं, किंतु उत्पादन क्षेत्र पर वे तात्कालिक प्रभाव डालते हैं और यह वे भुगतान की सभी शर्तों और उधार की परिस्थितियों के अलावा डालते हैं । अतः नक़द भुगतान के मामले में भी वे ऐसा ही करते हैं। उदाहरण के लिए, कोयला , कपास , सूत , वगैरह विछिन्न उत्पाद हैं। प्रत्येक दिन तैयार उत्पाद की अपनी मात्रा की पूर्ति करता है। अब यदि कताई मिल मालिक या खान मालिक उत्पाद की इतनी बड़ी मात्रा देने का क़रार कर लेता है, जिसके लिए , मान लीजिये , लगातार कार्य दिवसों के चार-छः हफ्तों तक का समय लग जाता है, तो जहां तक पूंजी पेशगी देने की कालावधि का संबंध है, यह बिल्कुल वैसी ही है, जैसे मानो इस श्रम प्रक्रिया में चार या छः हफ्ते की निरंतर कार्य अवधि लगायी गयी हो। वेशक यहां यह मान लिया गया है कि सारी आदेशित मात्रा की एक ही वार एकसाथ सुपुर्दगी की जायेगी या कम से कम भुगतान कुल सुपुर्दगी हो जाने पर ही होगा। अलग-अलग लें, तो हर दिन ने तैयार उत्पाद की अपनी निश्चित मात्रा दी है। किंतु यह तैयार मात्रा उस मात्रा का केवल एक अंश है, जिसके लिए क़रार किया गया था। यद्यपि इस प्रसंग में अव तक तैयार भाग उत्पादन प्रक्रिया में नहीं रह गया है, फिर भी वह गोदाम में केवल संभाव्य पूंजी की हैसियत से पड़ा हुअा है। अब हम परिचलन काल की दूसरी मंजिल , क्रय काल को अथवा उस अवधि को लेंगे, जिसमें पूंजी द्रव्य रूप से उत्पादक पूंजी के तत्वों में पुनःपरिवर्तित होती है। इस अवधि में उसे न्यूनाधिक समय तक अपनी द्रव्य पूंजी की अवस्था में बने रहना होता है, अतः कुल पेशगी पूंजी के एक निश्चित भाग को सारे समय द्रव्य पूंजी की अवस्था में रहना होता है, यद्यपि इस भाग में निरंतर परिवर्तित तत्व होते हैं। उदाहरण के लिए, किसी व्यवसाय में लगायी गयी कुल पूंजी में से सं गुणा १०० पाउंड राशि द्रव्य पूंजी के रूप में उपलब्ध होनी चाहिए, जिससे जहां इस सं गुणा १०० पाउंड के सभी घटक निरंतर उत्पादक पूंजी में परिवर्तित होते रहेंगे, फिर भी परिचलन की आमद से , सिद्धिकृत माल पूंजी से यह राशि निरंतर आपूरित होती रहेगी। अतः पेशगी पूंजी मूल्य का एक निश्चित भाग निरंतर द्रव्य पूंजी की अवस्था में, अर्यात ऐसे रूप में रहता है, जिसका संबंध उसके उत्पादन क्षेत्र से नहीं, वरन उसके परिचलन क्षेत्र से होता है हम पहले ही देख चुके हैं कि वाज़ार की दूरी के कारण पूंजी माल पूंजी के रूप में जितना ही अधिक समय तक बंधी रहती है, उतना ही द्रव्य के प्रत्यावर्तन में और फलतः द्रव्य पूंजी से उत्पादक पूंजी में पूंजी के रूपांतरण में भी प्रत्यक्ष विलंब होता है। .