पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२३६

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पेशगी पूंजी के परिमाण पर आवर्त काल का प्रभाव २३५ देखें)। दूसरी कार्य अवधि : सातवें से वारहवें हफ्ते तक। सातवें से नवें हफ्ते के वीच ३०० पाउंड अतिरिक्त पूंजी पेशगी दी जाती है। नवां हफ्ता ख़त्म होने पर ६०० पाउंड की वापसी। इनमें से ३०० पाउंड दसवें से वारहवें हफ्ते के बीच पेशगी दिये जाते हैं। अतः बारहवां हफ्ता ख़त्म होने पर ३०० पाउंड मुक्त हो जाते हैं, और ६०० पाउंड माल पूंजी के रूप में होते हैं, जिनकी वापसी पंद्रहवां हफ्ता वीतने पर हो सकती है। तीसरी कार्य अवधि : तेरहवें से अठारहवें हफ्ते तक। तेरहवें से पंद्रहवें हफ़्ते के बीच पूर्वोक्त ३०० पाउंड की पेशगी, उसके बाद ६०० पाउंड का पश्चप्रवाह , जिनमें से ३०० पाउंड सोलहवें से अठारहवें हफ्ते तक के लिए पेशगी दिये जाते हैं। अठारहवें हफ्ते की समाप्ति पर ३०० पाउंड द्रव्य रूप में मुक्त होते हैं, ६०० पाउंड माल पूंजी के रूप में हैं, जो इक्कीसवें हफ्ते की समाप्ति पर वापस आती है ( इस प्रसंग का अधिक विस्तृत प्रस्तुती- करण आगे, परिच्छेद २ दूसरे शब्दों में नौ कार्य अवधियों ( ५४ हफ़्तों) के दौरान , कुल ६ का ६०० गुना अथवा ५,४०० पाउंड कीमत का माल उत्पादित होता है। नवीं कार्य अवधि के अंत में पूंजीपति के पास ३०० पाउंड द्रव्य रूप में होते हैं और ६०० पाउंड माल के रूप में, जिसने अभी अपनी परिचलन अवधि पूरी नहीं की है। इन तीनों उदाहरणों की तुलना से पता चलता है कि एक तो ५०० पाउंड की प्रथम पूंजी तथा उसी प्रकार ५०० पाउंड की द्वितीय अतिरिक्त पूंजी का क्रमिक विमोचन दूसरे उदाहरण में ही होता है, जिससे पूंजी के इन दो अंशों का संचलन पृथक तथा एक दूसरे से स्वतंत्र होता है। किंतु ऐसा केवल इसलिए होता है कि हमने यह बहुत ही आपवादिक कल्पना की है कि कार्य अवधि और परिचलन काल आवर्त अवधि के दो वरावर हिस्से हैं। अन्य सभी मामलों में आवर्त अवधि के दो घटकों के बीच भी अंतर हो, दोनों पूंजियों के संचलन एक दूसरे को काटते हैं, जैसे पावर्त की दूसरी अवधि शुरू होने पर प्रथम और तृतीय उदाहरणों में । तव द्वितीय अतिरिक्त पूंजी प्रथम पूंजी के एक अंश के साथ उस पूंजी का निर्माण करती है, जो प्रावर्त की दूसरी अवधि में कार्यशील होती है, जब कि प्रथम पूंजी का शेष भाग द्वितीय पूंजी का मूल कार्य संपन्न करने के लिए मुक्त हो जाता है। माल पूंजी के परिचलन काल में क्रियाशील पूंजी इस प्रसंग में इस कार्य के लिए मूलतः पेशगी दी गई द्वितीय पूंजी के तद्रूप नहीं होती, किंतु उसका मूल्य वही होता है, और वह कुल पेशगी पूंजी का वही अशेपभाजक अंश होती है। दूसरी बात : जो पूंजी कार्य अवधि में कार्यशील थी, वह परिचलन काल में वेकार पड़ी रहती है। दूसरे उदाहरण में पूंजी कार्य अवधि के पांच हफ़्तों में कार्यशील रहती है और परि- चलन अवधि के पांच हफ़्तों में वेकार रहती है। अतः यहां प्रथम पूंजी कुल जितने समय बेकार रहती है, वह आधे साल के बरावर है। इस समय के बीच द्वितीय अतिरिक्त पूंजी ही प्रकट होती है, जो अपनी बारी में, प्रस्तुत प्रसंग में आधा साल वेकार पड़ी रह चुकी है। किंतु परिचलन काल में उत्पादन का सातत्य सुनिश्चित रखने के लिए आवश्यक अतिरिक्त पूंजी का निर्धारण वर्ष में परिचलन कालों की समुच्चित माना अथवा उनके सकल योग से नहीं, वरन सिर्फ़ यावर्त काल से परिचलन काल अनुपात से ही होता है। (निस्संदेह हम यहां मान लेते हैं कि सभी आवर्त एक जैसी परिस्थितियों में होते हैं। ) इस कारण दूसरे उदाहरण में अतिरिक्त पूंजी के २,५०० पाउंड नहीं, ५०० पाउंड आवश्यक होंगे। यह केवल इसलिए होता है कि 1 .