पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२३७

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पूंजी का प्रावते . 1 यावर्त में अतिरिक्त पूंजी वैसे ही प्रवेश कर जाती है, जैसे मूलतः पेशगी दी गई पूंजी , और इसलिए यह भी उसी की तरह अपना परिमाण अपने प्रावों की संख्या से ही बनाती है। तीसरी बात : जिन परिस्थितियों पर यहां विचार किया जा रहा है, वे इस वात से प्रभावित नहीं होती कि उत्पादन काल कार्य काल से अधिक है कि नहीं। ठीक है कि इस तरह आवतं अवधियों का समुच्चय प्रवर्धित हो जाता है, किंतु यह विस्तार श्रम प्रक्रिया के लिए कोई अतिरिक्त पूंजी आवश्यक नहीं बनाता। अतिरिक्त पूंजी केवल श्रम प्रक्रिया में परिचलन काल के कारण उत्पन्न होनेवाले अंतरालों को भरने का ही काम करती है। अतः वह उत्पादन की उन व्यवधानों से रक्षा करने लिए ही होती है, जो परिचलन काल में उत्पन्न होते हैं। उत्पादन की विशेष परिस्थितियों से उत्पन्न व्यवधान दूसरे तरीके से दूर किया जाता है, किंतु यहां उसका विवेचन अावश्यक नहीं है। फिर भी ऐसे प्रतिष्ठान हैं, जिनमें काम केवल आर्डरों के अनुसार सविराम चलता है, जिससे कार्य अवधियों के बीच अंतराल रह सकते हैं। ऐसे मामलों में अतिरिक्त पूंजी की आवश्यकता pro tanto [तत्प्रमाणे] दूर हो जाती है। दूसरी ओर मौसमी काम के अधिकांश मामलों में पश्चप्रवाह के समय की एक निश्चित सीमा होती है। यदि पूंजी का परिचलन काल उस वीच समाप्त न हो जाये, तो वही काम अगले साल उसी पूंजी से नये सिरे से शुरू नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर परिचलन काल भी उत्पादन की दो अवधियों के अंतराल की अपेक्षा अल्प हो सकता है। उस हालत में यदि पूंजी का इस वीच नियोजन न किया जाये, तो वह खाली पड़ी रहती है। चौथी वात : किसी निश्चित कार्य अवधि के लिए जो पूंजी पेशगी दी जाती है- जैसे तीसरे उदाहरण में ६०० पाउंड - वह अंशतः कच्चे माल और सहायक सामग्री में , कार्य अवधि के लिए उत्पादक पूर्ति में, स्थिर प्रचल पूंजी में और अंशतः परिवर्ती प्रचल पूंजी में , स्वयं श्रम के भुगतान में लगायी जाती है। संभव है कि स्थिर प्रचल पूंजी में जो भाग लगाया जाता है, वह उतने ही समय तक उत्पादक पूर्ति के रूप में विद्यमान न रहे। उदाहरणतः, संभव है कि कच्चा माल समूची कार्य अवधि भर सुलभ न हो, कोयला हर दो हफ्ते के वाद ही मिल पाता हो। फिर भी, चूंकि यहां उधार का अव, भी प्रश्न नहीं है, इसलिए पूंजी के इस भाग को, क्योंकि वह उत्पादक पूर्ति के रूप में सुलभ नहीं है, द्रव्य रूप में पास रखना चाहिए, जिससे कि जब जैसी ज़रूरत पड़े, उसे उत्पादक पूर्ति में तबदील किया जा सके। इससे छः हफ्ते के लिए पेशगी दिये स्थिर प्रचल पूंजी मूल्य का परिमाण नहीं बदल जाता। दूसरी ओर अप्रत्याशित ख़र्च के लिए द्रव्य पूर्ति , अड़चनें दूर करने के लिए वास्तविक आरक्षित निधि से निरपेक्ष मज़दूरी छोटे अंतरालों के वाद, अधिकतर प्रति सप्ताह दी जाती है। इसलिए अगर पूंजीपति मजदूर को अधिक समय तक के लिए अपना श्रम पेशगी देने के लिए विवश न करे, तो मजदूरी के लिए आवश्यक पूंजी का द्रव्य रूप में पास रहना ज़रूरी है। अतः पूंजी के पश्चप्रवाह के दौरान श्रम भुगतान के लिए उसका एक भाग द्रव्य रूप में रोक लेना होगा जव कि शेप भाग उत्पादक पूर्ति में परिवर्तित किया जा सकता है। अतिरिक्त पूंजी बिल्कुल वैसे ही विभाजित होती है, जैसे मूल पूंजी। किंतु प्रथम पूंजी से वह इस बात में भिन्न होती कि ( उधार संबंधों के अलावा ) स्वयं अपनी कार्य अवधि के हेतु सुलभ होने के लिए उसे प्रथम पूंजी की पहली कार्य अवधि के समूचे दौर में पेशगी दिया जाना होगा, जिसमें वह प्रवेश नहीं करती। आवर्त की पूरी अवधि के लिए पेशगी दिये जाने के कारण उसे इस काल में अव भी कम से कम अशतः स्थिर प्रचल पंजी में परिवर्तित