पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२५१

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पूंजी का प्रावत माल पूंजी में रूपांतरित न हो जाये , जब तक उससे द्रव्य पूंजी में और उससे फिर उत्पादक पूंजी में रूपांतरित न हो जाये, तब तक उसका प्रयोग नई कार्य अवधि में नहीं किया जा सकता। अतः पहली कार्य अवधि के तुरंत बाद दूसरी कार्य अवधि के आने के लिए आवश्यक है कि पूंजी फिर से पेशगी दी जाये और उत्पादक पूंजी के प्रचल तत्वों में परिवर्तित की जाये और उसकी मात्रा इतनी होनी चाहिए कि पहली कार्य अवधि के लिए पेशगी दी गई प्रचल पुंजी की परिचलन अवधि से उत्पन्न रिक्ति भर जाये। श्रम प्रक्रिया के पैमाने और पेशगी पूंजी के विभाजन अयवा पूंजी के नये अंशों के मिलाये जाने पर प्रचल पूंजी की कार्य अवधि की दीर्घता द्वारा डाले जानेवाले प्रभाव का स्रोत यही है। इसी का हमें इस परिच्छेद में अध्ययन करना था। ४. निष्कर्ष , पूर्व अनुसंधान से ये निष्कर्ष निकलते हैं : क) पूंजी के एक भाग को हमेशा कार्य अवधि में और दूसरे को परिचलन अवधि में रखने के लिए उसे जिन अंशों में बांटना होता है, वे एक दूसरे की दो प्रसंगों में अलग-अलग स्वतंत्र वैयक्तिक पूंजियों की तरह एवजी करते हैं : १) जव कार्य अवधि परिचलन अवधि के बराबर होती है, जिससे कि आवर्त अवधि दो वरावर भागों में बंट जाती है ; २) जव परिचलन अवधि कार्य अवधि से बड़ी होती है, किंतु साथ ही कार्य अवधि की सरल गुणज होती है, जिससे कि एक परिचलन अवधि सं कार्य अवधियों के बरावर होती है, जहां सं पूर्ण संख्या होगी। इन प्रसंगों में क्रमशः पेशगी पूंजी का कोई भाग मुक्त नहीं होता। ख) दूसरी ओर उन सभी प्रसंगों में, जिनमें १) परिचलन अवधि कार्य अवधि की सरल गुणज हुए विना उससे बड़ी होती है और २) जिनमें कार्य अवधि परिचलन अवधि से बड़ी होती है, प्रत्येक कार्य अवधि की समाप्ति पर और दूसरे प्रावर्त के प्रारंभ में कुल प्रचल पूंजी का एक भाग निरंतर और नियतकालिक रूप में मुक्त होता रहता है। यह मुक्त पूंजी कुल पूंजी के उस भाग के वरावर होती है, जो परिचलन अवधि के लिए पेशगी दिया गया था, बशर्ते कि कार्य अवधि परिचलन अवधि से बड़ी हो ; और यह मुक्त पूंजी पूंजी के उस भाग के बरावर होती है, जिसे कार्य अवधि से अयवा कार्य अवधियों के गुणज से परिचलन अवधि के अतिरेक को पूरा करना होता है , वशर्ते कि परिचलन अवधि कार्य अवधि से बड़ी हो। ग) इससे यह नतीजा निकलता है कि कुल सामाजिक पूंजी के लिए, जहां तक उसके प्रनल भाग का संबंध है, पूंजी की मुक्ति नियम बन जायेगा, और उत्पादक प्रक्रिया में क्रमशः कार्यशील पूंजी के अंशों का मात्र एकांतरण अपवाद वन जायेगा। कार्य तथा परिचलन अवधियों की समानता के लिए अथवा परिचलन अवधि और कार्य अवधि के सरल गुणज की समानता के लिए आवतं अवधि के दो घटकों की इस नियमित समानुपातिकता का मामले के स्वरूप से कोई भी संबंध नहीं है और इस कारण यह कुल मिलाकर अपवाद स्वरूप ही हो सकती है। अतः प्रचल सामाजिक पूंजी का काफ़ी वड़ा हिस्सा, जो साल में अनेक बार आवर्तित होता है, वार्पिक आवर्त चक्र के दौरान नियतकालिक रूप से मुक्त हुई पूंजी के रूप में रहेगा। फिर यह भी स्पष्ट है कि अन्य सभी परिस्थितियां समान हों, तो मुक्त पूंजी का परिमाण श्रम प्रक्रिया के परिमाण के साथ अथवा उत्पादन के पैमाने के साथ और इसलिए पूंजीवादी 1