पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२६१

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पूंजी का प्रावत - जहां तक अतिरिक्त पूंजी के उस भाग का संबंध है, जो मजदूरी के लिए आवश्यक है , सामान्य परिस्थितियों में उसे हमेशा द्रव्य पूंजी के रूप में पेशगी देना होगा, और इस प्रयोजन से पंजीपति क मुद्रा बाजार पर अपनी ओर से प्रत्यक्ष दबाव डालेगा। किंतु यह उत्पादन सामग्री में निवेशित किये जानेवाले भाग के लिए केवल तब अपरिहार्य है, जब उसकी नक़द अदायगी करनी हो। यदि वह उसे उधार पर मिल जाये, तो मुद्रा वाज़ार पर इसका कोई प्रत्यक्ष प्रभाव न पड़ेगा, क्योंकि तब अतिरिक्त पूंजी उत्पादक पूर्ति के रूप में, न कि प्रथमतः द्रव्य पूंजी के रूप में प्रत्यक्ष दी जाती है। किंतु यदि ऋणदाता क से प्राप्त हुंडी सीधे मुद्रा बाजार में डाल दे, बट्टे पर चला दे, इत्यादि, तो मुद्रा बाजार पर अन्य व्यक्ति के माध्यम से अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ेगा। किंतु यदि वह हुंडी का ऐसे कर्ज की जमानत के तौर पर इस्तेमाल करता है, जो अभी देय नहीं है, तो मुद्रा बाजार पर यह अतिरिक्त पेशगी पूंजी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रभाव नहीं डालेगी। , 1 दूसरा प्रसंग। उत्पादन सामग्री को कीमत में परिवर्तन , अन्य सभी परिस्थितियां यथावत । हमने अभी माना था कि ६०० पाउंड की कुल पूंजी का ४/५ भाग ( ७२० पाउंड के वरावर) उत्पादन सामग्री में निवेशित किया गया था और १/५ भाग (१८० पाउंड के बराबर) मजदूरी में। यदि उत्पादन सामग्री की कीमत अाधी रह जाये , तो ६ हफ्ते की कार्य अवधि के लिए ४८० पाउंड के बदले २४० ही और अतिरिक्त पूंजी २ के लिए २४० पाउंड के वदले १२० पाउंड ही दरकार होंगे। इस प्रकार पूंजी १ ६०० पाउंड से घटकर २४० पाउंड + १२० पाउंड, यानी ३६० पाउंड रह जाती है, और पूंजी २३०० पाउंड से घटकर १२० पाउंड + ६० पाउंड , यानी १८० पाउंड रह जाती है। अतः ६०० पाउंड की कुल पूंजी घटकर ३६० पाउंड + १८० पाउंड , यानी ५४० पाउंड रह जाती है। इसलिए ३६० पाउंड की राशि मुक्त हो जाती है। यह अलग हुई और अब अनियोजित अथवा मुद्रा वाज़ार में नियोजनार्थी द्रव्य पूंजी उस ९०० पाउंड की पूंजी के एक भाग के अलावा और कुछ नहीं है, जो मूलतः द्रव्य पूंजी के रूप में पेणगी दी गई थी और जो उत्पादन सामग्री की कीमतों में गिरावट पाने के कारण, समय-समय पर पुनःपरिवर्तित होती रहती है, अनावश्यक हो जाती है, वशर्ते कि व्यवसाय का विस्तार न करना हो, बल्कि उसी पैमाने पर चलाना हो। यदि क़ीमतों की यह गिरावट आक- स्मिक परिस्थितियों के कारण न हो ( ख़ास तौर से अच्छी फ़सल , सामग्री की प्रतिपूर्ति , इत्यादि ), वरन कच्चा माल देनेवाली उत्पादन शाखा में उत्पादक शक्ति की वृद्धि के कारण हो, तो वह द्रव्य पूंजी मुद्रा बाजार में और सामान्यतः द्रव्य पूंजी के रूप में उपलभ्य पूंजी में निरपेक्ष वृद्धि होगी, क्योंकि अब वह पहले से निवेशित पूंजी का अभिन्न घटक न रह जायेगी। जिसमें वह तीसरा प्रसंग। स्वयं उत्पाद की बाजार कीमत में परिवर्तन । कीमत गिरने पर पूंजी का एक भाग जाता रहता है और फलतः द्रव्य पूंजी की नई पेशगी के जरिये उसे पूरा करना होता है। विक्रेता का यह घाटा ग्राहक के लिए लाभ हो सकता है। ऐसा प्रत्यक्ष रूप में तब होता है, जब किसी उत्पाद की वाजार कीमत मात्न किसी आकस्मिक उतार-चढ़ाव के कारण गिरती है और इसके बाद फिर अपने सामान्य स्तर पर आ जाती है।