पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२८१

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पूंजी का प्रावतं , में लेकर यह पहली प्रावतं अवधि में सर्जित उसके अपने मूल्य का द्रव्य रूप (वेशी मूल्य सहित श्रम गस्ति की कीमत के बराबर ) होता है, जिससे दूसरी आवर्त अवधि में उसके श्रम की प्रदायगी की जाती है। ख के मजदूर के साथ ऐसा नहीं होता। जहां तक अंतोक्त का संबंध है, यह नही है कि द्रव्य यहां उस काम की अदायगी का माध्यम होता है, जिसे वह पहले ही पूरा कर चुका है, किंतु इस किये हुए काम की अदायगी उस मूल्य से नहीं की जाती, जिसका उत्पादन उसने स्वयं किया था और जो द्रव्य में परिवर्तित हुआ था ( स्वयं श्रम द्वारा उत्पादित मूल्य के द्रव्य रूप से नहीं )। यह दूसरे साल की शुरुआत तक नहीं किया जा सकता, जव ख के मजदूर की उसके द्वारा पिछले साल उत्पादित और द्रव्य में परिवर्तित मूल्य से अदा- यगी की जाती है। पूंजी को प्रावतं अवधि जितना ही कम होती है - अतः पूरे साल उसका पुनरुत्पादन जितना ही छोटे अंतरालों पर होता है- पूंजीपति द्वारा मूलतः द्रव्य रूप में पेशगी दी गई पूंजी का परिवर्ती भाग मजदूर द्वारा इस परिवर्ती पूंजी की प्रतिस्थापना करने के लिए सृजित मूल्य (जिसमें साथ- माय बेशी मूल्य भी शामिल होता है ) के द्रव्य रूप में उतना ही तेजी से रूपांतरित होता है; वह समय उतना ही कम होगा, जिसके लिए पूंजीपति को ख द अपनी निधि से द्रव्य पेशगी देना होगा, और उत्पादन के नियत पैमाने के अनुपात में उसके द्वारा सामान्यतः पेशगी दी जाने- वाली पूंजी उतना ही कम होगी, और वेशी मूल्य की नियत दर से वह वर्ष में वेशी मूल्य की अपेक्षाकृत उतना ही अधिक मात्रा का दोहन करेगा, क्योंकि वह मजदूर द्वारा सृजित मूल्य के द्रव्य रूप से उस मजदूर को उतना ही अधिक बार खरीद सकता है और उसके श्रम को उतना ही अधिक बार फिर गतिशील कर सकता है। यदि उत्पादन का पैमाना दिया हुअा हो, तो पेशगी परिवर्ती द्रव्य पूंजी का ( और सामान्यतः प्रचल पूंजी का ) निरपेक्ष परिमाण आवर्त अवधि के घटने के साथ उसी के अनुपात में घटता जाता है, जब कि वेशी मूल्य की वार्षिक दर बढ़ती जाती है। यदि पेशगी पूंजी का परिमाण दिया हुअा हो, तो उत्पादन का पैमाना बढ़ता है ; अतः यदि वेशी मूल्य की दर निश्चित हो, तो इसी प्रकार एक आवर्त अवधि में सर्जित वेशी मूल्य की निरपेक्ष मात्रा भी पुनरुत्पादन अवधियों के लघुकरण से जनित वेशी मूल्य की वार्षिक दर की वृद्धि के साथ-साथ बढ़ती है , पूर्व अन्वेषण से सामान्यतः यह परिणाम निकलता है कि यावर्त अवधियों की भिन्न-भिन्न दीर्घता उत्पादक प्रचल पूंजी की उतनी ही मात्रा को और श्रम के समुपयोजन के उतने ही अंश के साथ श्रम की उतनी राशि को गतिशील करने के लिए द्रव्य पूंजी का नितांत भिन्न राशियों में पेशगी दिया जाना यावश्यक बना देती हैं। दूसरा- और यह पहलेवाले भेद से संबद्ध है-ख और क के मजदूर जो निर्वाह साधन खरीदते हैं, उनकी अदायगी वे परिवर्ती पूंजी से करते हैं, जो उनके हाथों में परिचलन के माध्यम में रूपांतरित हो गई है। उदाहरण के लिए, वे बाजार से गेहूं सिर्फ़ निकालते ही नहीं हैं, बल्कि द्रव्य रूप में समतुल्य से उसे प्रतिस्थापित भी करते हैं। लेकिन चूंकि ख का मजदूर अपने निर्वाह साधनों के लिए, जिन्हें वह बाजार से निकालता है, जो धन देता है, वह उसके द्वारा साल के दौरान उत्पादित और बाजार में डाले मूल्य का द्रव्य रूप नहीं होता, जैसा कि क के मजदूर मामले में होता है, इसलिए वह निर्वाह साधन के विक्रेता को द्रव्य देता है, माल नहीं- चाहे वे उत्पादन साधन हों, चाहे निर्वाह साधन - जिन्हें यह विक्रेता विक्री की आय से - . 1