पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२८२

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परिवर्ती पूंजी का प्रावर्त २८१ . . उत्पादन 3 1 खरीद सके , जैसा कि वह क के मामले में कर सकता है। अतः बाज़ार श्रम शक्ति से, इस श्रम शक्ति के लिए निर्वाह साधनों से , ख के मामले में प्रयुक्त श्रम उपकरण के रूप में और उत्पादन सामग्री के रूप में स्थायी पूंजी से रिक्त हो जाता है और इन्हें प्रतिस्थापित करने के लिए बाजार में द्रव्य रूप में इनका समतुल्य डाला जाता है; किंतु साल के दौरान वाजार में कोई उत्पाद नहीं डाला जाता, जिससे कि उत्पादक पूंजी के वाज़ार से निकाले गये भौतिक तत्वों का प्रतिस्थापन हो सके। यदि हम समाज के पूंजीवादी नहीं, वरन साम्यवादी होने की कल्पना करें, तब पहले तो द्रव्य पूंजी विल्कुल होगी ही नहीं, न उससे उत्पन्न लेन-देन को छिपाने के लिए तरह-तरह के आवरण होंगे। तब प्रश्न समाज के लिए पहले से इसका हिसाव लगाने का हो जाता है कि वह किसी हानि के बिना कितने श्रम , उत्पादन साधनों और निर्वाह साधनों का निवेश ऐसे व्यवसायों में कर सकता है, जैसे उदाहरणतः, रेलमार्गों का निर्माण , जो कोई उत्पादन या निर्वाह साधन प्रस्तुत नहीं करते , न बहुत समय तक , साल भर या उससे ज्यादा समय तक कोई उपयोगी परिणाम ही उत्पन्न करते हैं , जव कि कुल वार्षिक उत्पाद से वे श्रम , साधन और निर्वाह साधन अवश्य निकालते रहते हैं। लेकिन पूंजीवादी समाज में , जहां सामाजिक विवेक सदा post festum [जश्न के वाद] ही हावी होता है, निरंतर भारी अव्यवस्था पैदा हो सकती है और पैदा होगी ही। एक ओर मुद्रा वाज़ार पर दवाव डाला जाता है ; जव कि दूसरी ओर सुलभ मुद्रा बाजार ऐसे वेशुमार व्यवसायों को पैदा कर देता है, इस तरह उन्हीं परिस्थितियों को जन्म देता है, जो आगे चलकर मुद्रा बाजार पर दवाव को पैदा करती हैं। मुद्रा वाज़ार को दवाव झेलना पड़ता है, क्योंकि यहां द्रव्य पूंजी की बड़ी-बड़ी पेशगी लगातार दीर्घ अवधियों के लिए आवश्यक होती है। और यह इस तथ्य के वावजूद कि उद्योगपति और व्यापारी अपने व्यवसाय को चलाने के लिए ज़रूरी द्रव्य पूंजी को सटोरियाई रेल योजनाओं, आदि में लगा देते हैं और उसकी कमी मुद्रा बाजार से उधार लेकर पूरी करते हैं। दूसरी ओर समाज को उपलब्ध उत्पादक पूंजी पर दवाव पड़ता । चूंकि उत्पादक पूंजी के तत्व बाज़ार से निरंतर निकाले जाते रहते हैं और उनकी जगह बाज़ार में उनका द्रव्य रूप में समतुल्य ही डाला जाता है, इसलिए प्रभावी मांग स्वयं पूर्ति का कोई तत्व मुहैया किये बिना पैदा हो जाती है। अतः उत्पादक सामग्री और निर्वाह साधन , दोनों की कीमतें बढ़ जाती हैं। इसमें यह वात और जोड़ी जानी चाहिए कि सट्टेबाज़ी एक नियमित व्यवहार है और पूंजी का बड़े पैमाने पर हस्तांतरण होता है। सटोरियों, ठेकेदारों, इंजीनियरों, वकीलों, वगैरह का गिरोह अपने को मालामाल कर लेता है। ये लोग वाज़ार में उपभोग वस्तुओं की जवरदस्त मांग पैदा कर देते हैं, जिसके साथ ही मजदूरी में भी बढ़ोतरी होती है। जिस हद तक इसका खाद्य पदार्थो से सरोकार होता है, खेती को बढ़ावा मिलता है। किंतु चूंकि इन खाद्य पदार्थों में साल के भीतर एकदम वृद्धि नहीं की जा सकती, इसलिए उनके आयात में वृद्धि होती है, जैसे साधारणतः विदेशी खाद्य सामग्री (जैसे कॉफ़ी, शक्कर, शराव , वगैरह) के और विलास वस्तुओं के आयात में भी वृद्धि होती है। अतः आयात में अतिशय बढ़ती होती है और अायात व्यवसाय की इस शाखा में वेहद सट्टेबाज़ी होती है। इस बीच उद्योग की उन शाखायों में, जिनमें उत्पादन का प्रसार तेजी से हो सकता है ( वास्तविक हस्तउद्योग, खनन , इत्यादि), चढ़ती कीमतों के कारण अाकस्मिक प्रसार होता है और उसके तुरंत बाद गिरावट आ जाती है। श्रम बाजार में यही प्रभाव पैदा होता है और वह अन्तर्हित सापेक्ष फ़ालतू आवादी . .