पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२८३

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पूंजी का प्रावतं व्यवसाय 32 की की संख्या और काम पर लगे मजदूरों की भी बड़ी संख्या को व्यवसाय की नई शाखाओं की और प्राकर्षित करने लगता है। आम तौर पर रेलों जैसे बड़े पैमाने के उपक्रम श्रम बाजार में श्रम शक्ति को एक निश्चित मात्रा निकालते हैं, जो कृपि, आदि जैसी व्यवसाय शाखानों में हो पा सकती है, जहां हट्टे-कट्टे जवानों की ही ज़रूरत होती है। नये उद्यमों की स्थापित गायाएं बन जाने और उनके लिए आवश्यक प्रवासी मजदूर वर्ग का निर्माण हो चुके होने के बाद भी यह स्थिति बनी रहती है, उदाहरण के लिए, रेल निर्माण के पैमाने में प्रोसत से ऊपर अस्थायी बढ़ोतरी पाने के मामले में। मजदूरों की प्रारक्षित सेना का जो भाग मजदूरी को नीचा खे रखता था, वह अब जब हो जाता है। मजदूरी में ग्राम वढ़ोतरी होती है, श्रम बाजार के अभी तक सुनियोजित भागों तक में। यह सब तक जारी रहता है कि अनिवार्य महापात श्रम की प्रारक्षित सेना को फिर मुक्त कर देता है और मजदूरी एक बार फिर अपने अल्पतम स्तर तक , और उससे भी नीचे पहुंच जाती है। चूंकि ग्रावर्त अवधि की दीर्घता- कम या अधिक - वास्तविक कार्य अवधि पर , अर्थात उत्पाद को बाजार के लिए तैयार करने के लिए ज़रूरी अवधि पर निर्भर करती है, इसलिए अवधि की न्यूनाधिक दीर्घता पूंजी के विभिन्न निवेगों के लिए सुनिश्चित उत्पादन की विद्यमान भौतिक परिस्थितियों पर आधारित होती है। कृषि में वे उत्पादन की नैसर्गिक परिस्थितियों का स्वरूप अधिक धारण करती हैं, हस्तउद्योग और खनन उद्योग के अधिकांश में वे स्वयं उत्पादन प्रक्रिया के सामाजिक विकास के अनुसार भिन्न-भिन्न होती हैं। कार्य अवधि की दीर्घता चूंकि पूर्ति के आकार ( मात्रिक परिमाण , जिसमें उत्पाद सामान्यतः बाजार में माल रूप में डाला जाता है ) पर निर्भर करती है, इसलिए इस दीर्घता का स्वरूप रूढ़ होता है। किंतु स्वयं इस रूड़ि का भौतिक आधार उत्पादन के पैमाने में होता है और इसलिए अलग से परीक्षण किये जाने पर ही आकस्मिक जान पड़ता है। अंततः, चूंकि आवर्त अवधि की दीर्घता परिचलन अवधि की दीर्घता पर टिकी होती है, इसलिए वह अंशतः बाजार की परिस्थितियों के अविराम परिवर्तन , विक्री की न्यूनाधिक आसानी , और इसके फलस्वरूप उत्पाद को अंशतः पास या दूर के बाजारों में बेचने की ज़रूरत पर निर्भर होती है। सामान्यतः मांग के परिमाण के अलावा यहां कीमतों का उतार-चढ़ाव अाधारभूत महत्व रखता है, क्योंकि जब कीमतें गिरती होती हैं, तव विक्री जानबूझकर रोकी जाती है, जब कि उत्पादन चालू रहता है ; इसके विपरीत , जब क़ीमतें चढ़ती हैं अथवा पेशगी विक्री 32 पाण्डुलिपि में यहां आगे चलकर विस्तारण के लिए निम्नलिखित टिप्पणी निविष्ट की गई है : “ उत्पादन की पूंजीवादी पद्धति में अंतर्विरोध : माल के ग्राहकों के रूप में श्रमिक बाज़ार के लिए महत्वपूर्ण है। किंतु स्वयं अपने माल - श्रम शक्ति - के विक्रेताओं के रूप में पूंजीवादी समाज उन्हें अल्पतम कीमत पर रखने की कोशिश करता है। " इसके अतिरिक्त अंतर्विरोध : जिन अवधियों में पूंजीवादी उत्पादन अपनी सारी ताक़त नियमित रूप में लगाता है, वे प्रत्युत्पादन की अवधियां सिद्ध होती हैं, क्योंकि उत्पादन संभाव्यताओं का उपयोग इस हद तक कमी नहीं हो सकता कि न केवल अधिक मूल्य का सृजन हो, वरन सिद्धिकरण भी हो ; किंतु मालों का विक्रय , माल पूंजी का और इस प्रकार वेशी मूल्य का सिद्धिकरण, सीमित होता है समाज की साधारण उपभोग आवश्यकताओं के कारण नहीं, वरन ऐसे समाज की उपभोग आवश्यकताओं के कारण , जिनमें भारी बहुलांश सदा दरिद्र रहता है और उसे सदा दरिद्र बने रहना होगा। किंतु यह सब अगले भाग से संबद्ध है।" .