पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२८४

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परिवर्ती पूंजी का आवर्त २८३ . - - की जा सकती है, तब विक्री और उत्पादन साथ-साथ चलते हैं। लेकिन उत्पादन स्थान से बाजार की जो वास्तविक दूरी है, उसे असली भौतिक आधार मानना चाहिए। मिसाल के लिए , अंग्रेज़ी सूती माल या सूत भारत को बेचा जाता है। मान लीजिये, अंग्रेज़ सूत निर्माता की अदायगी निर्यातक ख द करता है ( निर्यातक ऐसा स्वेच्छा से तभी करता है, जब मुद्रा वाज़ार तगड़ा होता है। लेकिन जब निर्माता स्वयं किसी उधार लेन-देन द्वारा अपनी द्रव्य पूंजी का प्रतिस्थापन करता है, तव परिस्थितियां इतनी अच्छी नहीं होती हैं )। निर्यातक बाद में अपना सूती माल भारत के बाजार में वेचता है, जहां से उसकी पेशगी पूंजी उसे प्रेषित कर दी जाती है। इस प्रेपण तक इस मामले की राह भी. विल्कुल वैसी ही रहती है, जैसी तब थी, जब कार्य अवधि की दीर्घता ने निश्चित पैमाने पर उत्पादन प्रक्रिया चालू रखने के लिए नई द्रव्य पूंजी की पेशगी को आवश्यक बना दिया था। निर्माता जिस द्रव्य पूंजी से अपने मजदूरों की अदायगी करता है और अपनी प्रचल पूंजी के अन्य तत्वों का नवीकरण करता है, वह उसके द्वारा उत्पादित सूत का द्रव्य रूप नहीं है। ऐसा तव तक नहीं हो सकता , जब तक इस सूत का मूल्य द्रव्य अथवा उत्पाद के रूप में इंगलैंड वापस न आ जाये। पहले की तरह ही यह अतिरिक्त द्रव्य पूंजी है। अंतर केवल यह कि निर्माता के बदले उसे व्यापारी पेशगी देता है, जिसने अपनी वारी में , बहुत संभव है , उसे उधार की कार्यवाही के ज़रिये पाया हो। इसी प्रकार वाज़ार में , इस द्रव्य को डालने से पहले या उसके साथ-साथ अंग्रेजी वाज़ार में कोई अतिरिक्त उत्पाद नहीं रखा गया है, जिसे इस द्रव्य से ख़रीदा जा सकता हो और जो उत्पादक या व्यक्तिगत उपभोग के क्षेत्र में दाखिल हो सकता हो । यदि यह स्थिति कुछ अधिक ही समय तक और कुछ अधिक ही बड़े पैमाने पर बनी रहे, तो उसका वही परिणाम होगा, जो पूर्वोक्त कार्य अवधि की बढ़ोतरी का हुआ था। संभव है कि भारत में सूत फिर उधार वेचा जाये। इस उधार से भारत में उत्पाद खरीदा जाता है और वदले के माल की तरह इंगलैंड भेजा जाता है अथवा इस राशि के लिए धनादेश भेजे जाते हैं। अगर यह स्थिति देर तक चले , तो भारतीय मुद्रा बाजार दवाव में आ जाता है और इंगलैंड में उसकी प्रतिक्रिया से यहां संकट पैदा हो सकता है। यह संकट भारत को सोने-चांदी के निर्यात से संबद्ध हो, तो भी वह अपनी वारी में अंग्रेज़ी फ़र्मों और उनकी भारतीय शाखाओं के, जिन्होंने भारतीय बैंकों से क़र्ज़ लिया था, दिवालिया हो जाने से वहां नये संकट को जन्म देगा। इस प्रकार एक ही समय पर उस बाज़ार में भी, जहां व्यापार संतुलन अनुकूल है, और उसमें भी , जहां वह प्रतिकूल है, संकट उत्पन्न हो जाता है। यह परिघटना और भी जटिल हो सकती है। उदाहरणतः, मान लीजिये कि इंगलैंड ने भारत को चांदी की सिल्लियां भेजी हैं, लेकिन भारत के अंग्रेज़ ऋणदाता अव वहां अपना ऋण ताबड़तोड़ बटोर रहे हैं और भारत को शीघ्र ही अपनी चांदी इंगलैंड वापस भेजनी होगी। संभव है कि भारत को निर्यात व्यापार और भारत से आयात व्यापार एक दूसरे को लगभग संतुलित कर दें, यद्यपि आयात व्यापार का परिमाण (कुछ विशेष परिस्थितियां छोड़कर, जैसे कि कपास की दुर्लभता, वगैरह ) निर्यात व्यापार द्वारा निर्धारित और प्रेरित होता है। इंगलैंड और भारत के बीच व्यापार शेष संतुलित लग सकता है अथवा इधर-उधर मामूली दोलन दर्शा सकता है। किंतु जैसे ही इंगलैंड में संकट फूटता है, तो पता चलता है कि भारत में अनविका सूती सामान गोदामों में पड़ा हुआ है ( इसलिए माल पूंजी से द्रव्य पूंजी में रूपांतरित नहीं हुआ है- इस सीमा तक अत्युत्पादन हुया है); और दूसरी ओर इंगलैंड के गोदामों -