पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/३०३

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३०२ पूंजी का प्रावर्त - में पन्य वस्तुओं की कीमत बढ़ जाती है। - या फिर यह कहा जाता है : अगर मजदूरी बढ़ती है, तो पूंजीपति अपनी पन्य वस्तुओं की कीमत बढ़ा देते हैं। किसी भी स्थिति में मजदूरी में ग्राम बढ़ोतरी होने से पप्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं। इसलिए कीमतों के बढ़ने की चाहे जो व्याख्या की जाये, माल परिचलन के लिए अधिक द्रव्य राशि आवश्यक हो जाती है। पहले निरूपण का उत्तर : मजदूरी बढ़ने के फलस्वरूप मजदूरों की जीवनावश्यक वस्तुओं की मांग ग्रास तौर से बढ़ेगी। विलास वस्तुओं के लिए उनकी मांग किसी क़दर कम बढ़ेगी अथवा ऐसी चीजों के लिए मांग पैदा होने लगेगी, जो पहले उनके उपभोग के दायरे में नहीं आती थीं। अपरिहार्य निर्वाह साधनों की मांग में अचानक और बड़े पैमाने की वृद्धि निस्संदेह उनकी कीमतों को तत्काल बढ़ा देगी। इसका परिणाम : सामाजिक पूंजी के अधिक भाग का जीवनावश्यक वस्तुएं पैदा करने में और कम भाग का विलास वस्तुएं पैदा करने में उपयोग होगा; क्योंकि वेशी मूल्य में ह्रास से और इसके फलस्वरूप इन चीज़ों के लिए पूंजीपतियों की मांग घटने से इनकी कीमत गिरती है। दूसरी ओर मजदूर चूंकि खुद विलास वस्तुएं खरीदते हैं, इसलिए उनकी मजदूरी में वृद्धि जीवनावश्यक वस्तुओं की कीमतों को बढ़ावा नहीं देती, वल्कि विलास वस्तुओं के ग्राहकों का विस्थापन ही करती है। मजदूरों में विलास वस्तुओं की खपत पहले की अपेक्षा ज्यादा हो जाती है और पूंजीपतियों में अपेक्षाकृत कम। Voila tout [वस, इतनी सी बात है। कुछ घट-बढ़ के बाद परिचालित माल राशि का मूल्य पहले जैसा हो जाता है। जहां तक क्षणिक उतार-चढ़ाव का सवाल है, वह अनियोजित द्रव्य पूंजी को उस पूंजी को, जो अभी तक सराफ़े में सट्टेबाजी या विदेशों में नियोजन की तलाश में रहती थी, घरेलू परिचलन में डाल देने के अलावा और कोई असर पैदा नहीं करता। दूसरे निरूपण का उत्तर : अगर अपनी पण्य वस्तुओं की क़ीमतें इच्छानुसार बढ़ाना पूंजी- वादी उत्पादकों के वश में होता, तो वे मजदूरी बढ़ाये बिना ऐसा कर सकते थे और करते भी। मालों की कीमतें गिरें, तो मजदूरी कभी नहीं बढ़ सकती। पूंजीपति वर्ग हमेशा और सभी परिस्थितियों में यदि वह सब कर सके , जो अब अपवाद रूप में किन्हीं निश्चित , विशेष , कहना चाहिए स्थानीय परिस्थितियों में ही करता है, अर्थात मजदूरी में बढ़ोतरी होते ही पण्य वस्तुओं की कीमतें और भी बढ़ाने और इस तरह जेब में ज्यादा मुनाफ़ा डालने के हर मौके का लाभ उठाना, तो वह ट्रेड-यूनियनो का कभी विरोध करे ही नहीं। यह दावा कि विलास वस्तुओं की मांग घटने से (पूंजीपतियों की घटी हुई मांग के कारण, जिनका इस तरह की चीज़ों को खरीदने का साधन कम हो गया है ) पूंजीपति उनकी कीमत बढ़ा सकते हैं, मांग और पूर्ति के नियम को लागू करने का बड़ा विचिन नमूना होगा। चूंकि यह मान विलास वस्तुओं के ग्राहकों का विस्थापन , पूंजीपतियों का मजदूरों द्वारा विस्थापन नहीं है, और नहां तक यह विस्थापन होता भी है, मजदूरों की मांग जीवनावश्यक वस्तुओं की कीमत वृद्धि प्रेरित नहीं करती, क्योंकि मजदूर अपनी बढ़ी हुई मजदूरी का जो हिस्सा विलास वस्तुओं पर खर्च करते हैं, उसे आवश्यक पर ख़र्च नहीं कर सकते,- इसलिए घटी हुई मांग के फलस्वरूप विलास वस्तुओं की कीमतें गिरती हैं। अतः विलास वस्तुओं के उत्पादन से तव तक पूंजी निकाली जाती है कि सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया में उनकी पूर्ति का परिमाण घटकर उनकी बदली हुई भूमिका के अनुरूप नहीं हो जाता। उनके उत्पादन में इस तरह की कमी से उनकी कीमत बढ़कर अपने सामान्य स्तर पर पहुंच जाती है - उनका मूल्य अन्यथा अपरिवर्तित रहता है। जब तक यह संकुचन जारी रहता है अथवा यह समकरण -