पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/३०४

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वेशी मूल्य का परिचलन प्रक्रिया चलती रहती है और जीवनावश्यक वस्तुओं की कीमतें बढ़ती रहती हैं, तब तक उनके उत्पादन के लिए उतनी ही पूंजी की पूर्ति की जाती है, जितनी उत्पादन की दूसरी शाखाओं से निकाली जाती है , यहां तक कि मांग की तुष्टि नहीं हो जाती। तव संतुलन बहाल हो जाता है और सारी प्रक्रिया का परिणाम यह होता है कि सामाजिक पूंजी, अतः द्रव्य पूंजी भी जीवनावश्यक वस्तुओं के उत्पादन तथा विलास वस्तुओं के उत्पादन के वीच अव भिन्न अनुपात में विभाजित हो जाती है। यह सारी अापत्ति पूंजीपतियों और उनके चाटुकार अर्थशास्त्रियों द्वारा खड़ा किया गया एक हौवा है। जिन तथ्यों के बहाने यह हौवा खड़ा किया जाता है, वे तीन तरह के हैं : १) द्रव्य परिचलन का यह सामान्य नियम है कि और सब वातें समान हों, तो प्रचल पण्य वस्तुओं की कीमतों की राशि में वृद्धि के साथ संचलनगत मुद्रा की मात्रा बढ़ती है, चाहे कीमतों की समग्रता में यह वृद्धि पण्य वस्तुओं की उसी मात्रा पर लागू होती हो या अधिक मात्रा पर । तव कार्य को कारण से उलझा दिया जाता है। मजदूरी जीवनावश्यक वस्तुओं की कीमतों के बढ़ने के साथ बढ़ती है ( यद्यपि यह बढ़ोतरी विरले ही होती है, और आपवादिक मामलों में ही समानुपातिक होती है ) । मजदूरी में बढ़ोतरी पष्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ने का परिणाम है, उसका कारण नहीं। २) मजदूरी में प्रांशिक. या स्थानिक बढ़ोतरी-यानी उत्पादन की कुछ शाखाओं में ही बढ़ोतरी के मामले में इस के बाद इन शाखाओं के उत्पाद की कीमतों में स्थानिक वृद्धि हो सकती है। किंतु यह भी बहुत सी परिस्थितियों पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए, यह कि मजदूरी में असामान्य गिरावट नहीं थी और इसलिए मुनाफ़े की दर असामान्यतः ऊंची नहीं थी ; या यह कि कीमतें बढ़ने से इन चीजों के लिए वाज़ार संकुचित नहीं हो जाता ( इसलिए उनकी क़ीमतें बढ़ने से पहले उनकी पूर्ति का संकुचन आवश्यक नहीं होता), इत्यादि । ३) मजदूरी में आम बढ़ोतरी के मामले में उद्योग की उन शाखाओं में उत्पादित पण्य वस्तुओं की कीमत में इज़ाफ़ा होता है, जहां परिवर्ती पूंजी का प्राधान्य होता है, किंतु दूसरी ओर जिन शाखाओं में स्थिर या स्थायी पूंजी का प्राधान्य होता है, वहां क़ीमत गिरती है। साधारण माल परिचलन के अपने अध्ययन में हमने देखा था (Buch I, Kap. III, 2)* कि यद्यपि पण्य वस्तुओं की किसी निश्चित मात्रा का द्रव्य रूप परिचलन क्षेत्र में केवल अस्थायी होता है, फिर भी माल के रूपांतरण के दौरान किसी एक व्यक्ति के हाथ में अस्थायी रूप से विद्यमान द्रव्य अवश्यमेव दूसरे के हाथ में पहुंच जाता है, जिससे कि प्रथमतः मालों का विनिमय सर्वागीण ही नहीं होता अथवा वे एक दूसरे को प्रतिस्थापित ही नहीं करते, वरन इस प्रतिस्थापन को द्रव्य का सर्वागीण अवक्षेपण प्रेरित करता है और उसके साथ-साथ होता है। "जब कोई माल किसी दूसरे माल का स्थान लेता है, तो द्रव्य माल सदा किसी तीसरे व्यक्ति के हाथों में बना रहता है। परिचलन के प्रत्येक रंध्र से द्रव्य पसीने की तरह बाहर निकलता रहता है" (Buch I, S. 92) "। पूंजीवादी माल उत्पादन के आधार पर हूबहू यही तथ्य इस - हिंदी संस्करण : अध्याय ३।-सं० हिंदी संस्करण : पृष्ठ १३१।-सं०